अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कथावस्तु
अभिज्ञानशाकुन्तलम् की कथावस्तु
मूलकथा
अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूल कथा महाभारत के आदिपर्व में 67 से 74 अध्याय तक प्राप्त होती है। वहाँ यह कथा अत्यन्त साधारण रूप में प्रस्तुत हुई है। पद्मपुराण के स्वर्ग-खण्ड में भी यह कथा प्राप्त होती है। पद्मपुराण के अनुशीलन से ऐसा ज्ञात होता है कि भाषा आदि की दृष्टि से पद्मपुराण की रचना कालिदास के बाद में हुई हो अतएव अभिज्ञानशाकुन्तलम् की मूलकथा का आधार महाभारत ही ठहरता है। महाकवि कालिदास ने अपनी नूतन कल्पनाओं के द्वारा इसमें मौलिकता ला दी है और इसे रम्य रोचक और प्रभावशाली बना दिया है।
अभिज्ञानशाकुन्तलम् का कथासार
इस सम्पूर्ण नाटक में सात अंक है जिसकी कथा संक्षेप में इस प्रकार है -
प्रथम अंक में सर्वप्रथम कवि ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति के लिए नान्दी पाठ के द्वारा अष्ट मूर्ति भगवान शिव की वन्दना करता है। तत्पश्चात सूत्रधार के द्वारा गीष्म ऋतु का मनोहर वर्णन प्रस्तुत किया जाता है। इसके बाद के आश्रम के मृग का पीछा करते हुए राजा दुष्यन्त सारथि के साथ महर्षि कण्व के आश्रम में प्रवेश करते हैं। जैसे ही राजा मृग को मारना चाहते हैं उसी समय एक तपस्वी शिष्यों के साथ प्रवेश करके राजा को बतलाता है कि यह आश्रम का मृग है अतः अवध्य है। राजा उस तपस्वी की बात को मान लेते हैं इस पर तपस्वी उन्हें आशीर्वाद देता है कि तुम्हें चक्रवर्ती पुत्र की प्राप्ति हो साथ ही राजा से आश्रम में प्रवेश कर आतिथ्य को स्वीकार करने का आग्रह करता है। राजा रथ को आश्रम के बाहर छोड कर सामान्य वेशभूषा में आश्रम में प्रवेश करते हैं।
महर्षि कण्व सोमतीर्थ को गये हुए हैं इसलिए अतिथि सत्कार का भार शकुन्तला पर है। राजा आश्रम में वृक्ष को सींचती हुई अत्यन्त सुन्दर तीन मुनिकन्याओं को देखता है। शकुन्तला के सौन्दर्य से आकृष्ट होकर वह उसके प्रति आसक्त हो जाता है। अपने राजकीय स्वरूप को छिपाने वाला दुष्यन्त भ्रमर से पीडित शकुन्तला की रक्षा करता है। मधुर वार्तालाप से वह शकुन्तला के जन्म का वृतान्त जानकर कि वह विश्वामित्र और मेनका की पुत्री है और तात कण्व के योग्य वर से विवाह के संकल्प को जानकर वह उससे विवाह करने का दृढ़संकल्प कर लेता है और विविध मधुर संवादों से शकुन्तला को आकृष्ट करने का प्रयत्न करता है। । शकुन्तला भी दुष्यन्त से प्रभावित होकर उस पर अनुरक्त हो जाती है। इसी बीच आश्रम में जंगली हाथी का प्रवेश होता है राजा अपने सैनिकों को रोकने के लिए प्रस्थान करता है और शकुन्तला भी अपनी सखियों के साथ से प्रस्थान करती है !
द्वितीय अंक के प्रारम्भ में विदूषक द्वारा राजा के आखेट समबन्धित सूचना प्राप्त होती है । श्रान्त विदूषक आखेट के कार्यक्रम को रोकने की प्रार्थना करता है । शकुन्तला के प्रति आकर्षित होने के कारण व्याकुल
हृदय दुष्यन्त विदूषक की प्रार्थना को स्वीकार कर लेता है आखेट के कार्यक्रम को रोकने की आज्ञा देता है। इसके पश्चात दुष्यन्त विदूषक से शकुन्तला के मनोहारी सौन्दर्य और रमणीय कार्यकलापों का वर्णनकरता है।
राजा विदूषक से आश्रम में प्रवेश हेतु किसी निमित्त को पूछता है। इसी बीच तपोवन में रूकने की इच्छा रखने वाले दुष्यन्त से दो तपस्वी वहाँपर कुछ दिन रहकर आश्रम के निवासियों के यज्ञादि कार्यों में होने वाले विघ्नों को दूर करने की प्रार्थना करते हैं। राजा इस प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार कर लेता है। इसी बीच राजधानी से माता का सन्देश लेकर दूत आता है और कहता है कि देवी के पारण के दिन आपकी उपस्थिति माताजी के द्वारा वांछित है। राजा तपोभूमि में अपनी उपस्थिति की अनिवार्यता को विचार कर विदूषक को राजधानी भेज देता है और विदूषक से कहता है कि अभी तक जो शकुन्तला के प्रेम एवं मनोहारिता का वर्णन उसके द्वारा किया गया है वह परिहास ही था यथार्थ नहीं।
तृतीय अंक इसके प्रारम्भ में विष्कम्भक का प्रयोग हुआ है। दुष्यन्त के प्रति आसक्ति के कारण अस्वस्थ शकुन्तला प्रविष्ट होती हैं। उधर कामपीडित राजा दुष्यन्त का भी प्रवेश होता है। वृक्षों की झुरमुट में छिपकर राजा शकुन्तला और उसकी सखियों के वार्तालाप को सुनता है । जिस समय विरह व्यथित शकुन्तला अपनी सखियों के कहने पर दुष्यन्त के लिए कमलिनीपत्र पर अपने नाखूनों से प्रेमपत्र लिखती है उसी समय दुष्यन्त शकुन्तला के समक्ष आकर अपने प्रेम को प्रगट करदेते हैं।
दुष्यन्त के आ जाने पर दोनों सखियां वहाँ से चली जाती है। राजा शकुन्तला के समक्ष गान्धर्व विवाह का प्रस्ताव रखता है परन्तु इससे पहले कि दुष्यन्त अपनी पिपासा को शान्त करते कि सखियाँ चक्रवाकवधू को अपने प्रियतम से विदा लेना का संकेत कर देती हैं। इसी बीच शान्ति जल लेकर गौतमी प्रवेश करती है। राजा दुष्यन्त लताओं की ओट में छिप जाता है गौतमी शकुन्तला को लेकर चली जाती हैं। यज्ञ में विघ्न डालने वाले राक्षस ही राजा को अपने कर्तव्य की ओर प्रेरित कर पाते हैं और राजा धनुष बाण लेकर अपने श्लाघनीय रक्षा व्रत में रत हो जाता है।
चतुर्थ अंक का प्रारम्भ विष्कम्भक की समाप्ति से होता है जिससे यह ज्ञात होता है कि राजा दुष्यन्त का शकुन्तला के साथ गान्धर्व विवाह हो गया है। राजा शकुन्तला को कुछ ही दिनों में बुला लेने का आश्वासन देकर राजधानी चला जाता है दुष्यन्त के वियोग में अत्यन्त अधीर होने के कारण शकुन्तला आश्रम में आये हुए दुर्वासा ऋषि को जान नहीं पाती है जिससे क्रुद्ध होकर ऋषि उसे शाप दे देते हैं कि जिसको स्मरण करती हुई आश्रम में आये हुए मुझ जैसे अतिथि की ओर ध्यान नहीं दे रही हो वह याद दिलाने पर भी तुझे नहीं पहचान सकेगा दुर्वासा का शाप शाकुन्तलम् का मोड़बिन्दु बना ।
प्रियंवदा शीघ्र जाकर दुर्वासा ऋषि से अनुनय विनय करती है फलस्वरूप ऋषि यह कहते हैं। कि मेरा शाप अन्यथा तो नही हो सकेगा किन्तु किसी पहचान की वस्तु दिखाये जाने पर वह अवश्य समाप्त हो जायेगा । शकुन्तला के पास दुष्यन्त की नामांकित अंगूठी है अतः उसे दिखाये जाने पर वह अवश्य पहचान लेगा। इस आशा से शाप वृत्तान्त को वे दोनों सखियां किसी को भी नहीं बताती हैं।
इसी बीच तीर्थ यात्रा से लौटे हुए महर्षि कण्व को आकाशवाणी के द्वारा शकुन्तला और दुष्यन्त के गान्धर्व विवाह और शकुन्तला के गर्भवती होने की सूचना मिलती है। महर्षि कण्व इस विवाह का अनुमोदन करते हैं ओर शकुन्तला को उसके पति के पास भेजने का विचार करते हैं। |
शकुन्तला की विदाई की तैयारी होने लगती है। वन के वृक्षों द्वारा उसको वस्त्राभूषण प्रदान किये जाते हैं। शकुन्तला अपनी प्रिय सखियों, लताओं, वृक्षों, वन मृगों आदि से विदाई लेती हैं। इसी समय महर्षि कण्व शकुन्तला को पतिगृह के लिए उपयुक्त आदर्श शिक्षा और राजा के लिए सन्देश देते हैं शकुन्तला आश्रम से विदा होती है उसके साथ गौतमी, शारंगरव और शारद्वत जाते हैं। शकुन्तला को गृह परम शान्ति का अनुभव करते हैं। इसी अंक में शाकुन्तल के चारो श्रेष्ठ श्लोक विन्यस्त हैं।
पंचम अंक में गौतमी, शारंगरव और शारद्वत शकुन्तला के साथ दुष्यन्त के राजदरबार में पहुचते हैं। अभिज्ञान के खो जाने के कारण राजा दुर्वासा के शाप की अवस्था से मुक्त नहीं है, अतएव शकुन्तला के साथ विवाह वृत्तान्त को वह मिथ्या बतलाता है । तपस्वियों और राजा के मध्य आवेशपूर्ण बातचीत होती है परन्तु राजा शकुन्तला को स्वीकार नहीं करता है।
अन्ततोगत्वा राजा का पुरोहित कहता है कि आपके विषय में ऐसा कहा गया है कि आपके चक्रवर्ती पुत्र उत्पन्न होगा। यदि यह चक्रवर्ती पुत्र को जन्म देती हैं तो इन्हें स्वीकार कर लेना अन्यथा नहीं। तब तक के लिए पुरोहित शकुन्तला को अपने घर में रखने के लिए प्रस्ताव करता है जिसे राजा स्वीकार कर लेता है । तपस्वीजन शकुन्तला को छोड़कर चले जाते हैं। शकुन्तला विलाप करती है। उसी समय एक स्त्री के आकार वाली तेजोमयी ज्योति उसे उठाकर ले जाती है। सभी लोग आश्चर्य करते हैं और राजा अत्यन्त खिन्न हो जाता है।
षष्ठ अंक में शकुन्तला की खोयी हुई मुद्रिका धीवर को प्राप्त होती है । वह उसे बाजार में बेचने के लिए जाता है किन्तु उस पर राजा का नाम अंकित होने के कारण पुलिस उसे चोर समझ कर पकड़ लेती है। निर्णय के लिए राजा के समीप ले आते हैं। राजा उस अंगूठी को लेकर धीवर को पुरस्कृत करते हुए उसे मुक्त कर देते हैं। इस अंगूठी को देखकर राजा को शाप के कारण भूली हुई घटनायें पुनः याद आ जाती हैं।
तब राजा को शकुन्तला वियोग से पीड़ा होती है। तभी मेनका की सखी सानुमती राजा की स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रच्छन्न रूप से प्रमदवन में प्रकट होती है। वहाँ राजा शकुन्तला के अधूरे चित्र को पूरा करता है। राजा के हृदय में शकुन्तला के प्रति प्रेम को देख कर सानुमती अत्यधिक प्रसन्न होती हैं। इसके पश्चात प्रतिहारी आकर राजा को मन्त्री का एक पत्र देती है ।
जिसमें लिखा है कि धनमित्र नामक एक व्यापारी समुद्र में डूब गया सन्तानहीन होने के कारण उसकी सम्पत्ति राजकोष में मिला ली जायेगी। इसे पढ़ कर स्वयं सन्तानहीन होने के कारण राजा अत्यन्त दुखी होता है। इसी बीच इन्द्र का सारथि मातलि का आगमन होता है, वह राजा को इन्द्र का सन्देश देता है कि दैत्यों के संहार हेतु इन्द्र ने उन्हें बुलाया है। राजा इन्द्र के सहायतार्थ स्वर्ग के लिए प्रस्थान करता है।
सप्तम अंक में राजा युद्ध में राक्षसों पर विजय प्राप्त करता है। इन्द्र अत्यन्त आदर के साथ राजा दुष्यन्त को स्वर्ग से विदा करते हैं। राजा दुष्यन्त लौटते समय हेमकूट पर्वत पर महर्षि मारीच के आश्रम को देखते हैं।
इसी समय राजा आश्रम में एक होनहार बालक को सिंह के बच्चे के दाँत गिनने का प्रयास करते हुए देखते हैं। राजा उसके पराक्रम को देखकर बहुत प्रभावित होता है और उसे पुत्र के समान प्रेम करने लगता है। राजा को तपस्विनी द्वारा यह ज्ञात होता है कि यह बालक पुरुवंश का है। अपराजिता नामक औषधि के द्वारा दुष्यन्त को यह ज्ञात हो जाता है यह बालक उसका ही पुत्र है । इसी बीच वियोग व्यथित शकुन्तला आकर राजा को प्रणाम करती है। राजा शकुन्तला से क्षमा माँगता है। राजा दुष्यन्त, शकुन्तला एवं भरत महर्षि मारीच के दर्शन के लिए जाते हैं। महर्षि मारीच दुर्वासा शाप के कारण राजा को निर्दोष बताते हैं तत्पश्चात् वे उन्हें आशीर्वाद देते हैं। यहीं पर भरतवाक्य के साथ नाटक की सुखद एवं मंगलमयी परिसमाप्ति होती है।
निम्नलिखित प्रश्नों के संक्षिप्त उत्तर दीजिए-
1. अभिज्ञानशाकुन्तलम् के प्रथम अंक का सारांश लिखिए।
2. अभिज्ञानशाकुन्तलम् के चतुर्थ अंक का सारांश लिखिए ।