महाकवि भासकृत प्रतिमानाटकम् का सामान्य परिचय
जीवनवृत्त:-
जीवनवृत्त प्रायः संस्कृत साहित्य के अधिकांश विद्वानों ने अपनी कृतियों में अपने परिचय का उल्लेख नहीं किया है । भास भी उन्हीं रचनाकारों की श्रेणी में हैं । उनके भी जन्मस्थान , काल आदि के विषय में निश्चित रूप से कुछ नहीं कहा जा सकता । एक दन्तकथा के अनुसार भास जाति के धोबी या धावक थे । इस बात की पुष्टि मम्मट के काव्यप्रकाश से होती है काव्यप्रकाश में आचार्य मम्मट ने काव्य - प्रयोजन के विषय में बताते हुए उल्लेख किया है कि श्रीहर्ष की रखावली आदि नाटिकाओं के प्रणयन में धावक कवि सहायक था । किन्तु यह धावक कवि कौन है , स्पष्ट नहीं हो पाया है ।
एक अन्य किंवदन्ती के अनुसार व्यास और मास में प्रतिष्ठा के लिये झगड़ा हुआ व्यास अपने को प्रतिभाशाली मानते थे और भास अपने को । अतः निर्णय के लिए दोनों के ग्रन्थ अग्नि में अर्पित किये गये । कहा जाता है कि व्यास के ग्रन्थों को अग्नि ने भस्म कर दिया , किन्तु भास के नाटकों में स्वप्नवासवदत्तम् अग्नि में भस्म न हो सका । शेष नाटक अग्नि में जलकर भस्म हो गये । इस कथन की पुष्टि राजशेखर के कथन से भी होती है -
"भास नाटक चक्रेऽपिच्छेकः क्षिसे परीक्षितम् । स्वप्रवासवदत्तस्य दाहकोऽभून पावकः ॥"
उक्त कथन को स्वीकार किया जा सकता है कि स्वप्रवासवदत्तम् नाटक अत्यन्त उच्च कोटि का है , जिसे समयरूपी अग्नि का तेज भी स्पर्श नहीं कर सका और यह अपनी श्रेष्ठता के कारण आज भी विद्वत् परिषद् को अपनी ओर आकृष्ट कर रहा है । समय के प्रवाह ने भास को छोड़ अन्य सभी नाटककारों की कृतियों को लुप्त कर दिया । यही कारण है कि राजशेखर ने अतिशयोक्ति अलंकार के द्वारा भास का महत्त्व स्थापित किया है । इस किंवदन्ती में कुछ तथ्य हो या न हो , पर यह स्पष्ट है कि भास भी व्यास के समान प्राचीन एवं यशस्वी कवि हैं ।
भास मनुष्य स्वभाव और प्रकृति के पारखी हैं । इनकी रचनाओं से यह भी ज्ञात होता है कि इनका पारिवारिक जीवन सुखी था । ये कर्त्तव्यपरायण पुत्र , निष्ठावान् पति एवं संतानप्रिय पिता थे । परिवार के प्रति इनका अत्यधिक लगाव था । ये आशावादी , न्यायप्रिय और स्वतंत्रता प्रेमी थे । राजकुलों से सम्बन्ध रहने के कारण उन्होंने राजप्रसाद और अन्तःपुरों के सजीव चित्रण में विशेष रूचि प्रदर्शित की है । अमात्य , सेना , दूत , युद्ध आदि के चित्रणों से भी यह जानकारी मिलती है कि इनका सम्बन्ध अवश्य ही किसी राजकुल से था । इनकी जितनी आस्था भवितव्यता अर्थात् भाग्य पर है उतनी ही श्रद्धा पुरुषार्थ पर भी । भास अपने अन्य नाटक प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् में पुरुषार्थ का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए कहते हैं कि प्रयत्नशील साहसी व्यक्ति संसार में सब कुछ प्राप्त कर लेता है ।
इस प्रकार अन्तः एवं बाह्य प्रमाणों से यह दृष्टिगोचर होता है कि महाकवि भास धर्म एवं कर्म दोनों से ब्राह्मण थे और किसी राजा के राजदरबार में राजकवि के पद पर प्रतिष्ठित थे । ब्राह्मणधर्म और वैदिक संस्कृति के प्रति उनकी अपार निष्ठा थी । महाकवि की कृतियों के अवलोकन से पता चलता है कि वे अनेक शास्त्रों में निपुण थे । उन्होंने वेद , इतिहास , पुराण , धर्मशास्त्र , अर्थशास्त्र , राजनीतिशास्त्र आदि नानाशास्त्रों का गम्भीर एवं सूक्ष्मता से अध्ययन किया था ।
भास ने अपने जन्म से भारत के किस भूभाग को अलंकृत किया , यह निश्चित रूप से कहा नहीं जा सकता । भास के रूपकों की उपलब्धि केरल में होने से कुछ इन्हें दाक्षिणात्य स्वीकार करते हैं । किन्तु भास ने उत्तरभारत के देश , नगर , नदी , वन , पर्वत आदि का जैसा चित्रण किया है , वैसा दक्षिण का नहीं । भास ने रामायण से कथावस्तु ग्रहण करने पर भी रामेश्वरम् जैसे प्रसिद्ध तीर्थ का उल्लेख नहीं किया , अतः भौगोलिक निर्देशों के आधार पर इन्हें दक्षिण का निवासी मानना समीचीन नहीं है हो सकता है कि अपने जीवन के उत्तरार्द्ध में ये दक्षिण के प्रवासी रहे हों , परन्तु भास द्वारा निरूपित प्रथाएँ , रीति - रिवाज उत्तर भारत के ही हैं ।
कुछ विद्वान् भास को उज्जयिनी का मानते हैं । बुद्ध के समय उज्जयिनी में महासेन प्रद्योत राज्य करता था । भास ने इनकी पुत्री वासवदत्ता व उदयन की कथा प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् व स्वप्नवासवदत्तम् नाटक में अंकित की है । उज्जयिनी के प्रति भास का स्नेह अत्यधिक है । भास ने उज्जयिनी के विभिन्न स्थानों का इतना सूक्ष्म एवं सांगोपांग वर्णन किया है जिससे प्रतीत होता है कि इन्होंने अपने जीवन का बहुत समय उज्जयिनी में अवश्य व्यतीत किया होगा , अतः भास की नगरी यही होनी चाहिए । इसे भास का जीवनस्थान कहना युक्तिसंगत प्रतीत होता है ।
भास के नाटकों से इतना तो स्पष्ट होता है कि ये उत्तरभारत के निवासी थे । उज्जयिनी और मगध दोनों से इनका घनिष्ठ सम्बन्ध है । मगध यदि जन्मभूमि है तो उज्जयिनी प्रवासभूमि और उज्जयिनी यदि जन्मभूमि है तो मगध प्रवासभूमि । भास के काल के विषय में भी मतभेद हैं । उनकी रचनाओं के आधार पर ही काल का अनुमान लगाना पड़ता है । भास ने स्वप्नवासवदत्तम् , प्रतिज्ञायौगन्धरायणम् एवं अविमारकम् में जिन प्राचीन राज्यों का उल्लेख किया है , उनका अस्तित्व मौर्य युग के पूर्व महापद्मनन्द के समय अर्थात् ई ० पू ० 384 में अवश्य था । फलतः भास का समय चौथी सदी ई ० पू ० माना जा सकता है ।
भास की रचनाओं में भरत मुनि के नाट्यशास्त्र के नियमों का विरोध पाया जाता है , अतः स्पष्ट है कि भास नाट्यशास्त्रकार भरत से पहले हुए हैं । भास के कई नाटकों में भरतवाक्य में राजसिंह शब्द आया है । मौर्य राजा स्वयं राजसिंह कहलाते थे । अय्यर महोदय का अनुमान है कि चन्द्रगुप्त को ही राजसिंह कहा गया है । वहीं हिमालय से लेकर विंध्यपर्वत तक एकच्छत्र राज्य करने वाला चन्द्रगुप्त मौर्य ही था । चन्द्रगुप्त ही प्रथम सम्राट माना जाता है , जिसने समस्त उत्तरभारत को संगठित कर अपने शासन के अधीन किया । कालिदास ने मालविकाग्निमित्रम् नाटक की प्रस्तावना में भास का स्मरण किया है । कालिदास का समय ई ० पू ० प्रथम शताब्दी माना जाता है अतः भास का समय ई ० पू ० चतुर्थ शताब्दी होना चाहिए ।
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