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संस्कृत के प्रमुख कवि कर्णपूर, चैतन्यचरितामृतम्, पारिजातहरण

 संस्कृत के प्रमुख कवि


कर्णपूर के महाकाव्य

कवि कर्णपूर महाप्रभु चैतन्य की परम्परा के कवि हैं। चैतन्य की ही भाँति इनका भी जीवनवृत्त रहस्यमय किंवदन्तियों से आच्छादित है। इनका जन्मस्थान बंगाल में कांचनपल्ली माना जाता है, जो कुमारहट्ट नामक ग्राम के अंतर्गत था।

 कुछ विद्वान् इनका पैतृक निवास स्थान कुलीनग्राम मानते हैं, जहाँ उनके पिता शिवानन्द सेन निवास करते थे। कवि कर्णपूर ने अपनी सभी कृतियों में अपने पिता का नाम शिवानन्द सेन बतलाया है। ये अम्बंठ कुल के थे तथा अपने समय के लब्धप्रतिष्ठ वार्शनिक थे। उनके रचे हुए बंगाली पदों में उनकी काव्यप्रतिभा का निदर्शन मिलता है। शिवानन्द के तीन पुत्र हुए- चैतन्यदास, रामदास और परमानन्ददास। कनिष्ठ पुत्र परमानन्ददास का ही साहित्यिक जगत् में कर्णपूर नाम प्रसिद्ध हुआ। इनका पूरा परिवार कृष्णलीला में भाग लिया करता था। कृष्णदास कविराजविरचित 'चैतन्यचरितामृतम्' के विवरण के अनुसार कवि कर्णपूर सात वर्ष की अवस्था में महाप्रभु चैतन्य से मिले थे। यह घटना चैतन्य के निर्वाण के दो वर्ष पूर्व की बतायी गयी है। ऐतिहासिक साक्ष्यों के अनुसार चैतन्य का निर्वाण-वर्ष १५३३ ई. है। अतएव कर्णपूर ने उनसे सन् १५३१ ई. में साक्षात्कार किया होगा। तदनुसार कर्णपुर का जन्मकाल १५२४ ई. निश्चित होता है। अन्य विद्वानों ने उनका जन्मकाल १५२६ ई. माना है।

कवि कर्णपूर का कृतित्व विपुल और विविध है। उनकी निम्नलिखित कृतियों का पता चलता है -

(१) महाकाव्य चैतन्यचरितामृत्तम् तथा पारिजातहरणम्।

(२) नाटक चैतन्यचन्द्रोदयम्।

(३) खण्डकाव्य- आर्याशतकम्, कृष्णानिककौमुदी, स्तवावली, श्रीकृष्णचैतन्यसहस्रनामस्तोत्र तथा बंगाली और संस्कृत में अनेक स्फुट पद।

(४) चम्पू- आनन्दवृन्दावनचम्पूः ।

(५) काव्यशास्त्र अलङ्कारकौस्तुम ।

(६) शास्त्रीय ग्रन्थ गौरगणोदेशदीपिका, बृहत्कृष्णगणोद्देशदीपिका तथा श्रीमद्भागवत की टीका।

इनके अतिरिक्त चमत्कारचन्द्रिका, कृष्णकौतुकम् तथा संस्कृतपारसीकपदप्रकाश कर कर्तृत्व भी कर्णपूर को दिया जाता है, जो सन्दिग्ध है।

चैतन्यचरितामृतम्

"चैतन्यचरितामृतम्' महाकवि कर्णपूर की किशोरावस्था की कृति कही गयी है। इरसका रचनाकाल स्वयं कवि के उल्लेख (२०४६) के अनुसार शक संवत् १४६४ अर्थात् १५४२ ई. है। यह महाकाव्य बीस सगर्गों में पूरा हुआ है तथा इसमें कुल १६११ श्लोक है। पूर्ववर्ती कवि मुरारिगुप्त तथा श्रीमद्भागवत और पुराणों से कवि ने कुछ पद्य बीच-बीच में उद्धृत किये हैं। चैतन्य महाप्रभु के ४७ वर्षों के जीवन की घटनाओं को कवि ने यहीं विशद रूप से चित्रित किया है। पहले से दसवें सर्ग तक चैतन्य के जन्म से लेकर संन्यासग्रहण तक का वृत्त है, और शेष दस सों में उनकी विविध अलौकिक लीलाएँ तथा निर्वाण-प्राप्ति तक का वृत्तान्त वर्णित है। इतिहासकार की अपेक्षा कवि पर उसका भक्तरूप प्रभावी है।

इस महाकाव्य की दो टीकाएँ प्राप्त होती है- वृन्दावनचन्द्र तकालङ्‌कार की विष्णुप्रिया और नित्यानन्दाधिकारी की गौरभक्तिविनोदिनी (अपूर्ण)।

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अल्पावस्था में लिखी गयी रचना होने पर भी कर्णपूर के इस महाकाल्य में भावना और अभिव्यक्ति पर कवि का अधिकार तथा शैली का चमत्कार अनुभूत होता है। यहाँ तक कि चित्रकाल्यों- मुरजबन्ध, गोमूत्रिकाबन्य, एकाक्षरपाद आदि की रचना में भी उसने अपना कौशल प्रकट किया है तथा अर्थालङ्कारों के सत्रिवेश के प्रति भी यह सजग है। उठप्रेक्षावैवित्र्य के साथ अन्धकार का वर्णन करते हुए कर्णपूर कहते है कि अन्पकार आशा रूपी सुन्दरियों के द्वारा पीसा जाता हुआ कस्तूरी का चूर्ण है, जिसे वे केलिवन में विहार, करती मुग्धवधुओं के मुख पर लगा रही है-

सम्मदादिव परस्परमाशायोषितो मृगमदोत्करचूर्णः। मन्मथोन्मचितमुग्धवधूनां रञ्जयन्ति पुरकेलिवनान्तम् ।। 


पारिजातहरण


'हरिवंशपुराण' की प्रसिद्ध कथा में कतिपय नये प्रसंगों की अवतारणा करते हुए कवि कर्णपूर ने इस महाकाव्य में अपनी श्रीकृष्णभक्ति को अभिव्यक्ति दी है। महाकाव्यलक्षणसम्मत जलक्रीडा, ऋतुवर्णनादि के प्रसंग भी इसमें जोड़े गये हैं। यह महाकाव्य १५८३-८५ ई. के लगभग रचा गया। इसमे १९ सर्ग है। चैतन्यचरितामृतम् की अपेक्षा कर्णपूर का भाषाशिल्प इसमें और अधिक निखरा हुआ है तथा कल्पनाशक्ति भी प्रौढतर हुई है। शृङ्‌गार और भक्ति का समन्वय उन्होंने इस महाकाव्य में प्रस्तुत किया है और वीररस का भी अंगी के रूप में निर्वाह किया है। सौन्दर्यवर्णन में विशेष दक्षता कर्णपूर ने प्रदर्शित की है। शची के मुख की अप्रतिम रमणीयता के वर्णन में आन्तिमान् की योजना करते हुए वे कहते हैं-

अतिसमुच्छितशृङ्गसमुद्ङ्गतत्रियशराजवधूमुखवीक्षणात् ।
 इङ विनेपि विधूदयशाकिनी कमलिनी मलिनीभवति क्षणम् ।। 


सुमेरु पर्वत पर इन्द्र के साथ शची जच विहार करने जाती, तो उसका मुख उदित हुआ चन्द्रमा लगता और उसके कारण कमलिनी मुरझा जाती। कवि का यमक अलङ्कार का प्रयोग विशेष चमत्कारमय है। सुमेरु पर्वत पर निवास करने वाले बेवताओं तथा सपो का एक साथ वर्णन करते हुए उसने यमक का यह प्रयोग किया है-

समुज्ज्वल श्रीरयमिन्दुसुन्दरो बिभर्ति मेरुः शिखरैरनुत्तमैः। 
विलासिनः कुण्डलिनः सुभोगिनो विलासिनः कुण्डलिनः सभोगिनः ।।

पारिजातहरण महाकाव्य में पूरे भारत के वर्णन का प्रयास किया गया है। श्रीकृष्ण स्वर्ग से लौटते हुए कामरूप (असम) में आते हैं। वहीं से वे लोहित नय (ब्रह्मपुत्र), कमता का एक साथ वर्णन करते हुए उसने यमक का यह प्रयोग किया है-

समुज्ज्वल श्रीरयमिन्दुसुन्दरो बिभर्ति मेरुः शिखरैरनुत्तमैः।

विलासिनः कुण्डलिनः सुभोगिनो विलासिनः कुण्डलिनः सभोगिनः ।


पारिजातहरण महाकाव्य में पूरे भारत के वर्णन का प्रयास किया गया है। श्रीकृष्ण स्वर्ग से लौटते हुए कामरूप (असम) में आते हैं। वहीं से वे लोहित नद (ब्रह्मपुत्र), कमता नगरी, गौड़ देश, मिचिला, वाराणसी, प्रयागं, मधुरा, वारणावत, कुरुक्षेत्र, महाराष्ट्र क्षेत्र आदि होते हुए द्वारिका पहुँचते है। इस प्रकार पूरे देश की एकता को व्यक्त करना भी कवि का लक्ष्य रहा है।

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