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श्री मैथिलीशरण गुप्त (आधुनिक काव्य)

श्री मैथिलीशरण गुप्त (आधुनिक काव्य)

श्री मैथिलीशरण गुप्त गुप्त हिन्दी के प्रतिनिधि कवि हैं । उन्हें संवत १६६३ में ' साकेत' ग्रंथ पर मंगलाप्रसाद पारितोषिक प्रदान किया गया 'था। हिन्दी साहित्य संसार ने उनका सम्मान “गुप्त जयन्ती'' मनाकर ओर मैथिली-मान-ग्रंथ समर्पित कर किया था। ये द्विवेदी काल के कवि हैं और उसी समय से अपनी कविता का परिमार्जन ओर संस्करण करते चले आ रहे हैं । यद्यपि बाबू, मैथिलीशरण उपन्यासकार या कहानी लेखक नहीं है, तथापि उनकी कविता का क्षेत्र बहुत व्यापक है । उन्होंने धार्मिक, ऐतिहासिक, पौराणिक, राष्ट्रीय ओर साहित्यिक कृतियाँ हिन्दी संसार को दी हैँ । चंद्रहास या 'तिलोत्तमा जैसे नाटक भी लिखे हैं॥ पर चरित्रों के संग्रह के असफलता पाने के कारण वे नाटककार के रूप में अधिक प्रसिद्ध नहीं हो सके। ये नाटक पौराणिक ही हैं, कथा के विकास में उनकी कल्पना सहायक नहीं हुईं। वे कथा को उसी रूप में अपने काव्य की पुट मिलाकर रख देते हैं। धामिक रचनाओं में हिन्दू, तेग बहादुर' आदि रचनाएँ प्रसिद्ध हैं। इन रचनाओं मे ये राष्ट्रीय भी हो गये हैं और हमारे सामने हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि कवि के रूप में भी आये हैं।

पहले पहल 'रग में भग', भारत भारती और “जयद्रथ वध' में हमें कवि का परिचय मिला । 'रग मे भग” एक ऐतिहासिक वृत्त है जिसमें वर्णनात्मकता अधिक है। भारत भारती' ने हमे कवि की राष्ट्रीयता के बहुत निकट ला दिया। उन्होंने भारत के अतीत, वर्तमान ओर भविष्य के चित्र स्पष्टता और काव्य-कौशल से खींचे। इसी ग्रन्थ ने कवि को लोक-प्रियता प्रदान की। अपने समय में “भारत भारती की रचना से हिन्दी साहित्य आलोकित हो उठा था। जयद्रथ वध मे अभिमन्यु का शौर्य और उत्तरा का विलाप वर्णित है। यह एक खंड काव्य है। वीर ओर करुणा--दो विपरीत रस“-स्थान स्थान पर अद्वितीय रूप में हैं। करण रस तो मानो उत्तरा के ऑँसुओं से ही लिखा गया है। उसने हिन्दी के न जाने कितने पाठकों की आंखों से आँसू बहा दिये हैं । ।,


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मैथिलीशरण गुप्त 

साहित्य की प्रगति में गुप्त जी ने पूरा योग दिया है। कविता की आधुनिक प्रगति में भी वे पीछे नहीं रहे हैं। उन्होंने मंकार नामक कविता-ग्रन्थ में छायावाद की भावना को बहुत स्पष्ट कर दिया है उसमें भी अनन्त' के लिए आसक्ति है। पर गुप्त जी का यह 'अनन्त उपनिषदों का ब्रहा है और वे उसे पाने के प्रयत्न की परिधि भौतिकवाद के बिन्दु से खींचते हैं। वर्तमान कविता का दृष्टिकोण वें सफलता पूर्वक रखने में समर्थ हो सके हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं । 

उन्होंने धार्मिक ग्रन्थों में साकेत ओर द्वापर की रचना कर अपनी मौलिकता प्रदर्शित की है | 'साकेत में गुप्त जी ने कैकेयी ओर उर्मिला के चित्रण में अपनी प्रतिमा का चमत्कार दिखलाया है. “द्वापर में उन्होंने कृष्ण-चरित्र के प्रत्येक पात्र को रूप रेखा खींचकर भ्रमरगीत को नवीन रूप से लिखा है । 

यशोधरा' एक ऐतिहासिक वृत्त है | सिद्धार्थ के ग्रह-त्याग-पर उनकी पत्नी यशोधरा के स्त्री-हृदय का चित्रण अद्वितीय है ।

अबला जीवन, हाय ! तुम्हारी यही कहानी —

आँचल में है. दूध, और आंखों में पानी ।

के सिद्धान्त पर ही इसकी रचना हुई है | हृदय के चित्रण यशोधरा' का विशेष स्थान है। सं० १६६४ में प्रकाशित मंगल घट में उनकी पुरानी कविताएं, संग्रहीत हैं जिनमें से अधिकांश  प॑० महावीरप्रसाद दिवेदी द्वारा सम्पादित कविता कलाप' में प्रकाशित हो चुकी थीं।

संवत १६६७ में श्री गुप्तजी ने नहुष' की रचना की। यह काव्य पौराणिक इतिवृत्त का आधार लेकर भी आधुनिक युंग की संदेश वाहक क्रांतिंदूंत हैं। पतन में भी मानवता कितने ऊपर उठ सकती है,इसका चित्र नहुष के पृष्ठों में है। संवत १६६६ में गुप्तजी के चार ग्रंथ प्रकाशित हुए; 'कुणाल गीत, अर्जन और विसर्जन”, 'विश्व-वेदना  तथा काबा और कर्बला” । इनमें भावोत्कृष्ता की दृष्टि से 'कुणाल गीत सर्वोत्कृष्ट दै। इसमें व्ययित दृदय के उदगारों को बढ़ी मनोरम कलाव्मकता प्रदान की गई हे । 

अरी भावती, भामित्ती ! मेरी कांचन कामिनी !

जैसे गीत भावना के क्षेत्र में अमर हैं। इसमे नारी-विज्ञान को भी यत्र तत्र बडी सुन्दर झलक हैं। “काबा ओर कर्बला” में कवि ने इस्लाम धर्म के विकास को बड़ी सहानुभूति के साथ चित्रित किया है । मुहम्मद साहब के व्यक्तित्व ओर इमाम हुसैन के चरित्र चित्रण मे मानवता के गार्भीय को प्रमुख स्थान दिया गया है। इसके द्वारा कवि ने साम्प्रदायिकता का नही, विश्व-मैत्री का सन्देश दिया है | अर्जन और विसर्जन'” में इउडोसिया और मूर-महिषी काहिना का प्रोज्जूपल चरित्र चित्रित किया गया है। “विश्व-वेदना' में पिछले महायुद्ध ओर वर्तमान युद्ध मे मानवता के त्रास के कुछ हृदयग्राही चित्र हैं। 'काबा और कर्बला”, अर्जन और विसर्जन' एवं विश्व वेदना” में वर्णानात्मकता ही प्रधान हैं | सम्मवत' ये रचनाएँ कवि के विश्राम-श्रणो की प्रतिभा हैं जिनमे वह आप बीती ओर जगबीती अधिक कहता है ।

मैथिलीशरण गुप्त की प्रतिमा हिन्दी में अ्द्वितीय है। वे अब भी उतने ही नवीन है, जितने तीस वर्ष पहले थे ।

११ अगस्त १६४४ को साठ वर्ष की समाप्ति पर महाकवि की स्वर्ण-जयन्ती मनाई गई है |


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