स्वप्नवासवदत्त का प्रथम अंक (महाकवि भास)
महाकवि भास का महत्त्व महाकवि कालिदास ने अपने नाटक 'मालविकाग्निमित्र' में 'प्रख्यातयश' भास का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि कालिदास के समय में भास के नाटक ख्यात हो चुके थे ।
भूमिका
'हर्षचरित' की भूमिका में बाणभट्ट ने भास के नाटक गुणों का संक्षिप्त परिचय दिया है। बाण ने स्पष्ट लिखा है कि भास को अपने नाटकों से ख्याति मिली । महाकवि राजशेखर ने 'स्वप्नवासवदत्त' की स्तुति (प्रशंसा) की है। राजशेखर लिखते हैं कि भास के नाटकों की जब अग्नि परीक्षा हुई तब केवल 'स्वप्न- वासवदत्त' बचा, अन्य नाटक जल गये ।
जयदेव कवि ने भास को कविता-कामिनी का हास कहा है- 'भासो हासः ।' हास्य के प्रतीकभूत विदूषक का जैसा अपूर्व अभिनय 'स्वप्नवासवदत्त' में मिलता है, वैसा किसी अन्य नाटक में नहीं ।
भास का समय
भास के समय का निर्धारण सरल नहीं है। श्रीगणपति शास्त्री का विचार है कि भास कौटिल्य और पाणिनि से भी प्राचीन हैं। इनके मतानुसार भास का काल पाँचवीं शती ई० पू० है। डाक्टर वानेंट इस विचार से सहमत नहीं हैं। उनका कथन है कि भास-नाटक-चक्र का कल्पित कवि भास वास्तव में सातवीं शती के एक केरलीय कवि से अभिन्न है ।
डॉक्टर लेस्नी, प्रिन्ट्ज, बनर्जी, सुकथंकर आदि विद्वानों ने भास के नाटकों की भाषा-संबंधी अंतरंग परीक्षा के आधार पर माना है कि भास कालिदास से प्राचीन है। भास का समय अधिकांश विद्वानों ने ईसा पूर्व तीसरी शती ।) माना है।
भास को कृतियाँ
भास ने तेरह (13) नाटक लिखे हैं, जिनका विभाजन इस प्रकार है-
१. प्रतिमा (राम-वनवास से रावण-वध तक)
२. अभिषेक (राम का राज्याभिषेक)
३. पञ्चरात्र (महाभारत से सम्बद्ध)
४. मध्यमव्यायोग (महाभारत से सम्बद्ध)
५. दूतघटोत्कच (महाभारत से सम्बद्ध)
६. कर्णभार (महाभारत से सम्बद्ध)
७. दूतवाक्य (महाभारत से सम्बद्ध)
८. ऊरुभंग (महाभारत से सम्बद्ध)
६. बालचरित (महाभागवत में वर्णित कृष्ण के चरित्र से सम्बद्ध)
१०. दरिद्रचारुदत्त (लोककथा पर आधारित)
११. अविमारक (लोककथा पर आधारित)
१२. प्रतिज्ञायोगन्धरायण (राजा उदयन की कथा पर आधारित)
१३. स्वप्नवासवदत्त (राजा उदयन की कथा पर आधारित)
स्वप्नवासवदत्त
स्वप्नवासवदत्त' के परीक्षोपयोगी/महत्वपूर्ण अंशों की प्रसंगसहित व्याख्या
प्रथम अंक
(१) एवमनिर्मातानि दैवतान्यप्यवधूयन्ते ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह यौगन्धरायण की उक्ति है। महाराज दर्शक की बहन पद्यावती अपनी माता महादेवी से मिलने के लिए तपोवन के आश्रम को चली। सिपाहियों ने तपोवन के मार्ग से लोगों को हटाना शुरू किया। वासवदत्ता को यह अच्छा नहीं लगा। उसने मन्त्री यौगन्धरायण से पूछा कि कौन मनुष्य लोगों को हटा रहा है? वासवदत्ता के प्रश्न के उत्तर में यौगन्धरायण ने कहा कि जो मनुष्य मार्ग से लोगों को हटा रहा है, वह अपने को धर्म से हटा रहा है। उसके कथन का अभिप्राय यह था कि तपोवन में मार्ग से लोगों को हटाना पाप है।
इस पर वासवदत्ता ने कहा कि मेरे पूछने का अभिप्राय यह नहीं है। मैं तो यह पूछना चाहती हूँ कि क्या मुझे भी हटाया जाएगा ? उत्तर में यौगन्ध- रायण ने कहा कि हाँ, आपको भी हटाया जायगा; क्योंकि हटाने वाले लोग नहीं जानते कि आप महासेन प्रद्योत की पुत्री तथा वत्सराज उदयन की पत्नी हैं। अज्ञानवश तो देवताओं का भी अपमान हो जाता है।
(२) प्रथम अंक — तथा परिश्रमः परिखेदं नोत्पादयति यथाऽयं परिभवः ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है । यह वासवदत्ता की उक्ति है। मगध नरेश दर्शक की बहन पद्मावती अपनी माता महादेवी से मिलने के लिए तपोवन के आश्रम को चली। उसके सिपाहियों ने मार्ग से लोगों को हटाना शुरू किया। वासवदत्ता को यह अच्छा नहीं लगा ।
यौगन्धरायण और वासवदत्ता दोनों गुप्त वेष में वहाँ आये थे। दोनों ने मार्ग में अनेक कष्टों का अनुभव किया होगा। वासवदत्ता बहुत थक गई थी, किन्तु थकावट की उसे चिन्ता नहीं हुई। वह इस विचार से दुःखित थी कि उसे भी मार्ग से हटाया जायगा। उक्त वाक्य में वह यौगन्धरायण से कह रही है कि श्रम से उसे ऐसा कष्ट नहीं हुआ जैसा कि अपमान से होने वाला है ।
(३) कालक्रमेण जगतः परिवर्त्तमाना चक्रारपङ्क्तिरिव गच्छति भाग्यपङ्क्तिः ।
यह वाक्य भासकृत स्वप्नवासवदत्त के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह यौगन्धरायण की उक्ति है।
तपोवन में पद्मावती के आने पर मार्ग से लोगों को हटाया जा रहा है। वासवदत्ता चिन्तित है कि उसे भी मार्ग से हटाया जायगा। शारीरिक परि- श्रम से उत्पन्न कष्ट की अपेक्षा अपमान से उत्पन्न कष्ट अधिक भीषण होता है। इस पर यौगन्धरायण उसे इस प्रकार धीरज बँधाता है-
एक समय था जब तुम भी इसी प्रकार चलती थी। जब पुनः तुम्हारे पति को राज्य-लाभ होगा तब तुम इसी प्रकार चलोगी। भाग्य सदा एक-सा नहीं रहता । कभी अच्छे दिन आते हैं और कभी बुरे । रथ का पहिया जब घूमता रहता है तब उसका जो भाग नीचे है, वह ऊपर आ जाता है और फिर वही ऊपर का भाग नीचे चला जाता है। वैसे ही मनुष्य का भाग्य कभी उन्नत और कभी अवनत हो जाता है।
(४) न परुषमाश्रमवासिषु प्रयोज्यम् ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह काञ्चुकीय की उक्ति है। मगध नरेश दर्शक की बहन पद्मावती जब अपनी माता महादेवी से मिलने के लिए तपोवन में आई और उसके सिपाही मार्ग में से लोगों को हटाने लगे तब काञ्चुकीय ने आकर सम्भषक से कहा कि लोगों को मत हटाओ । श्राश्रमवासियों के साथ कठोरता का व्यवहार करना उचित नहीं । इससे राजा की निन्दा होती है। ये तपोवन के अपमानों से बचने के हेतु वन में आकर बसे हैं। सा व्यवहार करना उचित नहीं है। लोग नगर में होने वाले इनके साथ नागरिकों का-काञ्चुकीय के कहने पर सिपाही मार्ग से लोगों को हटाना बन्द कर देते हैं।
( ५) हन्त सविज्ञानमस्य दर्शनम् ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह यौगन्धरायण की उक्ति है। मगध-नरेश दर्शक की बहन पद्मावती अपनी माता महादेवी से मिलने के लिए तपोवन में आई। उसके सिपाही मार्ग से लोगों को हटाने लगे। तब काञ्चुकीय ने आकर उन सिपाहियों को रोका और कहा कि यह तपोवन है। यहाँ रहने वाले लोगों को यदि तुम मार्ग से हटाओगे तो राजा की निन्दा होगी। अपमान से बचने के लिए तो ये लोग यहाँ आकार बसे हैं।
उक्त वाक्य में यौगन्धरायण ने काञ्चुकीय की प्रशंसा की है। वह उसके विचार से सहमत है।
(६) प्रद्वेषो बहुमानो वा सङ्कल्पादुपजायते ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह यौगन्धरायण की उक्ति है।
महाराज दर्शक की बहन पद्मावती को देखकर यौगन्धरायण के मन में उसके प्रति विशेष आदर उत्पन्न हुआ। पुष्पकभद्र आदि ज्योतिषियों से उसे ज्ञात हुआ था कि पद्मावती उदयन की पत्नी होगी। वह पद्मावती को स्वामिनी समझने लगा। विवाह-सम्बन्ध के होने से पूर्व ही उसके प्रति उसका आदर जाग्रत हो उठा। वह सोचने लगा कि द्वेष और आदर अपने मन की विचार-शक्ति से ही उत्पन्न होते हैं, क्योंकि मैं इसे अपने राजा उदयन की पत्नी के रूप में देख रहा हूँ अतः मेरा इसके प्रति आदर-भाव उत्पन्न हुआ है।
(७) तपोवनानि नामाऽतिथिजनस्य स्वगेहम् ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' नाटक के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह तापसी की उक्ति है। महाराज दर्शक की बहन पद्मावती अपनी माता महादेवी के दर्शनार्थ तपोवन को आई। स्वागतकारिणी तापसी को उसने प्रणाम किया- 'आयें वन्दे !' तापसी ने उसे आशीर्वाद दिया- 'चिरं जीव' और कहा कि तपोवन अतिथियों का अपना घर है। इस पर पद्मावती ने अपना आगमन सफ समभ्भा ।
(८) दुःखं न्यासस्य रक्षणम् ।
वह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' नाटक के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह काञ्चुकीय की उक्ति है। महाराज दर्शक की बहन पद्मावती ने सभी तापसों को श्रामन्त्रित किया। वह उन्हें उनकी अभीष्ट वस्तु प्रदान करने को तैयार हो गई। काञ्चुकीय ने घोषणा की- "कलश किसे चाहिए? कौन वस्त्र का इच्छुक है ? किसे अपना शिक्षण पूर्ण करके गुरु को कितनी दक्षिणा देनी है ?"
इस घोषणा को सुनकर यौगन्धरायण काञ्चुकीय के समक्ष आकर अपनी माँग प्रस्तुत करता है- "मेरी बहन आबन्तिका कुछ दिनों के लिए पद्मावती का आश्रय चाहती है। उसका पति विदेश में गया है। जब तक वह लौटता नहीं, तक तक मेरी बहन पद्मावती के पास रहेगी ।"
यौगन्धरायण की माँग सुनकर काञ्चुकीय घबरा जाता है। वह उसकी माँग को स्वीकार करना नहीं चाहता। वह कहता है कि 'धरोहर की रक्षा करना कठिन है। इसकी अपेक्षा तो धन देना, प्राण देना और तप करना भी कठिन नहीं है।'
किन्तु पद्मावती काञ्चुकीय के इस विचार से सहमत नहीं हुई। जबकि पहले ही घोषणा कर दी गई कि जो व्यक्ति जिस वस्तु की माँग करे, वह उसे दी जाएगी, तब किसी भी प्रार्थना को ठुकराना (अस्वीकार) उचित नहीं होगा।
(६) नहि सिद्धवाक्यान्युत्क्रम्य गच्छति विधिः सुपरीक्षितानि ।
यह वाक्य भासकृत स्वप्नवासवदत्त के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह यौगन्धरायण की उक्ति है। जब यौगन्धरायण तपोवन में आया तब पद्मावती भी अकस्मात् वहाँ आ पहुँची। पद्मावती ने आकर घोषणा करा दी कि कोई भी तापस किसी भी इष्ट वस्तु को माँगे, वह उसे देगी। पद्मावती का तपोवन में आना और उक्त प्रकार की घोषणा कराना - दोनों ऐसे सुअवसर पर हुए, जैसे कि वे योजना के अन्तर्गत हों। इस प्रकार मन्त्रियों की योजना को सफल बनाने में देव ने भी साथ दिया। आदेशिकों ने कई बातें पहले से ही कह दी थीं। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि उदयन के राज्य का बहुत-सा भाग शत्रु के हाथ में चला जाएगा। उन्होंने यह भी कहा था कि उदयन का पद्मावती से विवाह होगा। पहली बात पूरी उतरी। शत्रु ने वत्सदेश का बहुत-सा भाग छीन लिया। अब दूसरी बात भी उदयन का पद्मावती से विवाह - पूरी उतरनी चाहिए ।
बौगन्धरायण का कथन है कि दैव सिद्धों के आदेशानुसार चलता है। सिद्धों का वचन कभी असत्य नहीं होता। उनके वचन में विश्वास रखते हुए यौगन्धरायण ने वासवदत्ता को पद्मावती के हाथ सौंपा।
(१०) सर्वजनसाधारणमाश्रमपदं नाम ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है। यह काञ्चुकीय की उक्ति है। पद्मावती, आवन्तिका के वेष में वासवदत्ता, परिव्राजक के वेष में यौगन्ध- रायण, और काञ्चुकीय तपोवन में एक साथ बैठे हुए बातचीत कर रहे थे। इतने में वहाँ एक ब्रह्मचारी आया। महिलाओं को देखकर वह कुछ व्याकुल हो गया। इस पर काञ्चुकीय ने उससे कहा कि आप व्याकुल न हों। तपोवन के आश्रम में कोई भी व्यक्ति श्रा सकता है। यह स्थान सभी के लिए प्रवेश्य है।
(११) सकाम इदानीमार्ययौगन्धरायणो भवतु ।
यह वाक्य भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से उद्धृत किया गया है । वासवदत्ता आत्मगत कह रही है।
ब्रह्मचारी उदयन की शोकावस्था के सम्बन्ध में इस प्रकार सुना रहा था कि जब उदयन को मालूम हुआ कि वासवदत्ता और यौगन्धरायण दोनों अग्नि में जल गये तब वह उसी अग्नि में कूदने लगा, किन्तु मन्त्रियों ने उसे रोका। तब वह वासवदत्ता के गहनों को छाती से लगाकर मूछित हो गया ।
ब्रह्मचारी द्वारा वर्णित उदयन की शोक-दशा को सुनकर सभी उपस्थित जन दुःखित हुए, किन्तु वासवदत्ता अपने मन में आर्य यौगन्धरायण को कोसने लगी। मूर्छा-दशा में यदि उदयन ने प्राण त्याग दिये तो यौगन्धरायण की पूरी योजना विफल हो जाएगी यह सोचकर वासवदत्ता ने मन में व्यंग्यपूर्ण शब्दों में कहा कि अब आर्य यौगन्धरायण का मनोरथ पूरा हो ।
(१२) धन्या सा स्त्री यां तथा वेत्ति भर्त्ता भत्तृ स्नेहात् सा हि दग्धाऽप्यदग्धा ।
यह अवतरण भासकृत 'स्वप्नवासवदत्त' के प्रथम अङ्क से लिया गया है। यह ब्रह्मचारी की उक्ति है।
उदयन को जब वासवदत्ता की मृत्यु का पता चला, तब वह पृथ्वी पर लोटने लगा। उसका शरीर धूलि से भर गया। वह सहसा उठकर - 'हा वासवदत्ता ! हा अवन्तिराजकुमारी ! हा प्रियशिष्या' आदि बहुत विलाप करने लगा। उसे इतना दुख हुआ जितना कभी किसी चकवे को भी प्रिया-वियोग में नहीं होता। कोई भी विरही इतना सन्तप्त नहीं होगा। धन्य है वह नारी, जिसे पति वैसा मानता है। वास्तव में वही पतिप्रिया है। जलने पर भी वह नहीं जली। वह उसके हृदय में रहकर सदैव जीवित है।