काव्य की परिभाषा
काव्य की परिभाषा : -
काव्य, मनुष्य चेतना की नाना प्रकार की रचनाओं की सबसे महत्तम रचना है। काव्यशास्त्र में इसी का आत्म-विश्लेषण किया जाता है। काव्य का लक्षण निर्धारित करना ही काव्यशास्त्र का प्रयोजन है। काव्य के परिभाषा विवेचन के अन्तर्गत लक्षण को स्थिर करना ही काव्यशास्त्री का काम होता है।
लक्षण का अर्थ है. असाधारण अर्थ। काव्य लक्षण का अर्थ है या काव्य का विशेष धर्म है, जो वाङ्मय के अन्य प्रकारों से काव्य का भेद दर्शाता है। परन्तु सूक्ष्म काव्य चिंतन की अभिव्यक्ति को स्थूल लक्षण में बद्ध करते- न करते काव्य-चिंतन की धारा अपने विद्यमान पथ का अतिक्रमण कर नवीन मार्ग में अग्रसर हो जाती है, जिसमें काव्य का कोई भी लक्षण काव्य के संज्ञा-निरूपण में ठीक नहीं जँचता कदाचित इसीलिए हैजर्ड ऐडम्स ने The Interest of Criticism' में यह कहा था कि आज तक ऐसी कोई किताब नहीं लिखी गई है जिसमें इस महत्त्वपूर्ण प्रश्न का सही उत्तर दिया गया हो। और उनके लिए भी इस प्रश्न का उत्तर देना संभव नहीं।
ग्राहम हफ ने 'An Essay on Criticism' में यह कहा था कि प्रत्येक आलोचक इस प्रश्न को उठाता अवश्य है केवल यही प्रमाणित करने के लिए वह जानता तो है कि काव्य क्या है, भले ही उसकी परिभाषा को स्थिर न कर सकता हो । वस्तुतः रचनात्मक ग्रंथ साहित्यिक रचना है या नहीं यह जानना आवश्यक है। और इसी के लिए यह जानना आवश्यक हो जाता है कि साहित्यिक दृष्टिकोण क्या है या साहित्य (काव्य) क्या है, उसकी परिभाषा क्या है या काव्य का वह असाधारण धर्म (appropriate circumstances ) क्या है, जिसमें काव्य काव्य कहलाता है।
प्राचीन काल में जब संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने काव्य-रचना क्षेत्र को अपने सिद्धान्तों और नियमों में आबद्ध कर रखा था तब भी काव्य की कोई सुष्ठु परिभाषा प्रस्तुत नहीं हो पायी थी। अब तो नवीन भाव-भंगिमाओं के कारण काव्य क्षेत्र बहुत ही विस्तृत हो चुका है और इसीलिए काव्य परिभाषा प्रस्तुत करने का प्रश्न या काव्य के असाधारण धर्म के बारे में जानना कठिन हो गया है। वस्तुतः एक ओर अव्याप्ति और दूसरी ओर अतिव्याप्ति इन दोनों दोष रेखाओं के बीच लक्षण की व्याप्ति को संयत रखना कठिन कार्य है।
इसीलिए काव्य के लक्षण (Differentia) के निर्धारण से सुगम उसका रूप निर्धारण है। काव्य के स्वरूप से हमारा तात्पर्य काव्य के सामान्य धर्म (genus) से है जिसके आधार पर हम काव्य के सामान्य तत्त्वों को ग्रहण करते हैं। इन सामान्य तत्त्वों में भाव, बुद्धि और शैली का उल्लेख किया जाता है। मगर इन तत्त्वों के बावजूद कोई कृति पूर्णकाव्यमय (really poetical) नहीं भी हो सकती। जब प्रयोगवादियों एवं नई कविता के कवियों ने छायावादियों पर आक्षेप किया तो उसका आधार केवल छायावादी कवियों की कविताओं का विशेष मूल्यांकन ही नहीं था, वरन् कविता की प्रकृति को पहचानने की पुरानी परम्परा की वैधता का भी था। इसीलिए काव्यलक्षण या असाधारण धर्म की पहचान अत्यन्त आवश्यक है। नहीं तो साहित्यिकता या काव्यात्मकता का पता लगाना असम्भव हो जाता है। काव्य के असाधारण धर्म से ही काव्य में काव्यात्मकता (poeticality) का उदय होता है और उसका पता लगाना ही काव्य परिभाषा के बारे में जानना है।
काव्य लक्षण या परिभाषा पर संस्कृत काव्यशास्त्रियों ने दो विभिन्न धरातलों पर विचार-विश्लेषण किया है। काव्यशास्त्रियों के एक वर्ग ने 'शब्द- प्राधान्य' स्कूल की स्थापना की और काव्य के अभिव्यंजना पक्ष को प्रधानता देते हुए काव्य के असाधारण धर्म की खोज की। दण्डी ने कहा कि जब कविता समझने की बात उठती है, तब शब्द ही पहले आते हैं न कि अर्थ अग्निपुराणकार ने कहा कि शब्दों की ध्वन्यात्मकता का भी महत्त्व है, भले ही अर्थ का अनुधावन न हुआ हो। जगन्नाथ भी शब्द की रमणीयता में काव्य के असाधारण धर्म को ढूँढ़ते हैं। जयदेव ने वाक् (Speech) एवं विश्वनाथ ने वाक्य को प्रधानता दी है।
वस्तुतः इस वर्ग के विद्वान् भर्तृहरि के शब्द ब्रह्म की अवधारणा से प्रभावित रहे हैं, जिसके अनुसार शब्द से ही वस्तु का ज्ञान होता है-
न सोऽस्ति योंप्रत्य लोके यः शब्दानुगामादृते ।
अनुविध्मिव ज्ञानं सर्वो शब्देन भासते ।।