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कालिदास और उनका ग्रंथ रघुवंशम्

कालिदास और उनका ग्रंथ रघुवंशम्

कालिदास को बहुत से ग्रंथों का रचयिता माना जाता है। प्रोफेसर एम. आर. काले ने लगभग चालीस ( 40 ) ऐसे ग्रंथों का उल्लेख किया है कि जिन्हें कालिदास द्वारा लिखा माना जाता है। परन्तु इनमें से केवल सात ही ऐसे ग्रंथ हैं जिन्हें विद्वान् सर्वसम्मति से कालिदास द्वारा लिखा स्वीकार करते हैं। वे ग्रंथ हैं-

(क) ऋतुसंहार और मेघदूत - दो खण्ड काव्य ।

(ख) कुमारसम्भवम् और रघुवंशम् दो महाकाव्य ।

(ग) मालविकाग्निमित्रम्, विक्रमोर्वशीयम् और अभिज्ञान शाकुन्तलम्- तीन नाटक ।

यहां हम 'रघुवंशम्' महाकाव्य पर ही विचार करेंगे।

'रघुवंश' महाकाव्य कालिदास की नैसर्गिक प्रतिभा का फल है। इसके उन्नीस (19) सर्ग है। इसमें सूर्य वंश के विश्व - विदित यशस्वी राजाओं के जीवन चरित्र का वर्णन है। तथापि कालिदास से पूर्व भी कुछ कवि (पूर्वसूरयः) जैसे महर्षि वाल्मीकि, महाकवि भास आदि इस विषय को लेकर काव्य लिख चुके थे और स्वयं कालिदास ने भी अपने रघुवंश महाकाव्य के आरम्भ में इस बात को स्वीकार किया है तथापि उन्होंने अपने पूर्ववर्ती महाकवि वाल्मीकि की रामायणी कथा का आँख मूंद कर अनुकरण नहीं किया है। 

वाल्मीकिकृत रामायण की कथा अयोध्यानगरी में महाराजा दशरथ के राज्य से प्रारम्भ होती है और श्री राम के पुत्रों तथा भाईयों के वृत्तान्त के उल्लेख के साथ समाप्त होती है। परन्तु महाकवि कालिदास के 'रघुवंश' महाकाव्य की कथा श्री राम के पूर्वज राजा दिलीप के वर्णन से प्रारम्भ होती है तथा विषयासक्त कामुक राजा अग्निवर्ण की मृत्यु के वर्णन के साथ अकस्मात् ही समाप्त हो जाती है। कभी-कभी विद्वान् रघुवंश के पौराणिक पात्रों तथा आद्य गुप्त सम्राटों के ऐतिहासिक चरित्र में परस्पर समानता ढूढ़ने का प्रयास करते हैं। परन्तु इस प्रकार की तुलना तथा विस्तार में जाने से पूर्व रघुवंश की विस्तृत विषय सूची को उसके प्रत्येक सर्ग के सारांश के साथ जान लेना अधिक उपयुक्त होगा। 

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अतः सबसे पहले 'रघुवंश' के प्रत्येक सर्ग की विषय वस्तु का सार नीचे क्रमपूर्वक दिया जाता है-

प्रथम सर्ग

वैवस्वत मनु के वंश में महाराज दिलीप नामक सुप्रसिद्ध सम्राट् हुए। मगध देश की राजकुमारी सुदक्षिणा उनकी रानी बनी। दुर्भाग्य से दिलीप को सुदक्षिणा से कोई संतान नहीं हुई। दिलीप इस बात से बहुत खिन्न रहते थे। एक दिन वे सुदक्षिणा को अपने साथ लेकर इस सम्बन्ध में अपने कुलगुरु महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में पहुंचे। तब ऋषि ने ध्यान लगाकर राजा के सन्तान न होने का यह कारण ज्ञात किया कि एक बार स्वर्गलोक से भूलोक को लौटते हुए राजा ने मार्ग में खड़ी दिव्य गौ सुरभि ( कामधेनु ) के प्रति उचित सम्मान प्रदर्शित नहीं किया था। इस उपेक्षावृत्ति से रुष्ट होकर सुरभि ने राजा को शाप दिया कि उसको तब तक सन्तान नहीं होगी जब तक वह उसकी पुत्री नन्दिनी गौ को सेवा से संतुष्ट नहीं कर लेगा। सौभाग्य से सुरभि की पुत्री नंदिनी गौ उस समय ऋषि के आश्रम में ही विद्यमान थी। अतः ऋषि ने राजा को आदेश दिया कि वह अपनी रानी के साथ नंदिनी की सेवा करके उसे प्रसन्न करे और पुत्र प्राप्ति के लिए उसका आशीर्वाद प्राप्त करे। राजा एवं रानी नियमापेक्षा से महर्षि वशिष्ठ के आश्रम में मुनिवृत्ति से रहने लगे।

द्वितीय सर्ग

महाराजा दिलीप और महारानी सुदक्षिणा ने परम भक्ति और निष्ठा के साथ नन्दिनी की सेवा आरम्भ कर दी। एक दिन जब राजा दिलीप हिमालय पर्वत के सौंदर्य को मुग्ध होकर देख रहे थे, तो सहसा पर्वत की गुफा से निकलकर किसी सिंह ने नन्दिनी गाय को पकड़ लिया। गौ के प्राणों की रक्षा के लिए राजा ने अपने को बलिदान करना चाहा। धर्मनिष्ठ राजा को प्राणों की अपेक्षा गोरक्षा अधिक प्रिय था। एक गाय की रक्षार्थ चक्रवर्तित्व का बलिदान भारत ही की देन है। परन्तु राजा दिलीप के आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब सिंह ने मनुष्य की वाणी में कहा कि वह शिव का सेवक है। उसने राजा को गौ की रक्षा के लिए अपने प्राणों का उत्सर्ग करने से रोका। राजा फिर भी सिंह से प्रार्थना करते रहे और गौ के स्थान पर उसे अपना शरीर भोजन के रूप में देने का आग्रह करते रहे। राजा की ऐसी बलिदान तथा आत्म-त्याग की भावना को देखकर नन्दिनी अत्यन्त प्रसन्न हुई और इस सारे रहस्य को खोलते हुए उसने कहा कि उसने राजा की परीक्षा लेने के लिए यह माया रची थी । वस्तुतः वहां कोई सिंह नहीं था। प्रसन्न होकर उस नंदिनी गाय ने राजा को वर दिया कि उसको पुत्र होगा। 

तृतीय सर्ग

समय आने पर सुदक्षिणा ने पुत्र को जन्म दिया। इस सर्ग में राजकुमार रघु के जन्म और उसकी शिक्षा का वर्णन है। दिलीप ने अपने पुत्र राजकुमार रघु को अश्वमेध यज्ञ के अश्व का संरक्षक नियुक्त किया। अश्व- रक्षा रूप अपने कर्त्तव्य के पालन में राजकुमार को देवराज इन्द्र के विरुद्ध भी युद्ध करना पड़ा। यद्यपि वे इन्द्र के अधिकार से अश्व को मुक्त कराने में सफल नहीं हुए, तथापि उन्होंने इस साहसिक कार्य से अपने पिता दिलीप को संतुष्ट कर उनकी इच्छा पूर्ण की। तदन्तर ऋषि के उपदेश से राजा दिलीप प्रजापालन का उत्तरदायित्व अपने पुत्र रघु को सौंप कर स्वयं वन में तपस्या करने के लिए चले गये। 

चतुर्थ सर्ग

शासक के रूप में रघु अपने पिता दिलीप से भी श्रेष्ठ सिद्ध हुए। इस सर्ग में कवि ने रघु की दिग्विजय का सजीव चित्र प्रस्तुत करते हुए उनकी विजय यात्रा में आने वाले स्थानों, उनके पिता द्वारा किये गये युद्धों तथा उनके हाथों पराजित राजाओं तथा जातियों का हो विशद वर्णन किया है।

पञ्चम सर्ग

दिग्विजय के पश्चात् रघु ने विश्वजित् यज्ञ किया जिसमें उन्होंने अपना सारा धन यज्ञ की दक्षिणा के रूप में ब्राह्मणों में बाँट दिया। इस विश्वजित् यज्ञ के परिणामस्वरूप जब रघु सर्वथा निर्धन हो गये तो एक दिन ऋषि कौत्स दान मांगने के लिए उनके पास पहुंचे। इस पर रघु कुछ समय के लिए किंकर्त्तव्यविमूढ़ बने रहे परन्तु फिर भी उन्होंने धनाधीश कुबेर से ऋषि को देने के लिए आवश्यक धन की याचना की। कुबेर ने प्रसन्न होकर स्वेच्छा से रघु के कोष को स्वर्ण की प्रचुर वर्षा करके भर दिया। ऋषि कौत्स ने अपनी इच्छा पूर्ण हो जाने पर प्रसन्न होकर रघु को आशीर्वाद दिया, तदनुसार उनके अज नामक पुत्र उत्पन्न हुआ। जब राजकुमार अज युवा हुए तो राजा भोज ने उन्हें अपनी पुत्री इन्दुमती के स्वयंवर में आमन्त्रित किया। 

षष्ठ सर्ग

इस सर्ग में इन्दुमती के स्वयंवर का यथार्थ चित्रण है जिसमें राजकुमारी इन्दुमती ने स्वयंवर में आए अन्य राजकुमारों की उपेक्षा करके अज के गले में पुष्पों की माला पहनाकर उन्हें अपना पति चुना।

सप्तम सर्ग 

अज और इन्दुमती दोनों का विधिपूर्वक विवाह हुआ। पर जब नव विवाहित दम्पत्ति अयोध्या को लौट रहे थे, मार्ग में स्वयंवर में निराश राजकुमारों ने बदला लेने के लिए उन पर आक्रमण कर दिया। परन्तु अज ने अकेले होने पर भी इन सुसंगठित राजकुमारों का वीरतापूर्वक सामना किया और उन्हें पराजित कर उनके दर्प को नष्ट कर दिया।

अष्टम सर्ग

सम्राट् रघु राजनीति से सन्यास लेकर तपोवन में चले जाते हैं। इस सर्ग में कवि ने बड़ी कुशलता से अज के राज्य तथा उनके पिता रघु के सन्यास की तुलना की है। कुछ काल के पश्चात रघु योग-समाधि द्वारा अपना शरीर त्याग देते हैं और अज से दशरथ नामक पुत्र उत्पन्न होता है। अज पर भीषण विपत्ति आती है। उनकी रानी इन्दुमती पर स्वर्ग से पुष्पों की माला टूट कर गिरती है और उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती है। इस सर्ग के उत्तरार्द्ध में अज के विलाप का वर्णन है जो सम्पूर्ण रघुवंश में उच्चकोटि का काव्यांश माना जाता है। 

नवम सर्ग

विशेष : इस सर्ग से लेकर 15 सर्ग तक रघुवंश की कथा वाल्मीकि की रामायण की कथा से बहुत मिलती है। जब युवराज दशरथ वर्महर अर्थात् शस्त्र धारण करने के योग्य हुए तब अज ने उन्हें राजा नियुक्त किया और स्वयं "प्रायोपवेशन" अर्थात् आमरण व्रत आरम्भ कर दिया। इस सर्ग में दशरथ के आखेट का बड़ा ही भव्य वर्णन है जिससे उन्होंने भूल से किसी अन्धे मुनि के पुत्र श्रवण कुमार को मार दिया। अपने पुत्र की मृत्यु पर दुःखी होकर अन्धे मुनि ने शाप दिया कि राजा दशरथ की भी वृद्धावस्था में पुत्र वियोग के दुःख में मृत्यु होगी।

दशम सर्ग

दशरथ ने पुत्र प्राप्ति के उद्देश्य से 'पुत्रेष्टि यज्ञ आरम्भ कर दिया। इसी अवधि में देवताओं ने भगवान् विष्णु से रावण को नष्ट करने की प्रार्थना की। अतः भगवान विष्णु ने दशरथ के पुत्र के रूप में पृथ्वी पर अवतार लेने का निश्चय किया।

एकादश सर्ग

इस सर्ग में श्रीराम के शैशव का वर्णन है। वे और लक्ष्मण दोनों भाई दुष्ट राक्षसों से यज्ञ की रक्षा करने के लिए मुनि विश्वामित्र के साथ जाते हैं। मार्ग में श्रीराम ताड़का राक्षसी को मारते हैं और विश्वामित्र से अनेक प्रकार के गुप्त अस्त्र प्राप्त करते हैं। विश्वामित्र के यज्ञ के सफलतापूर्वक समाप्त हो जाने पर श्री राम राजा जनक की नगरी मिथिला की ओर प्रस्थान करते हैं और मार्ग में शाप के कारण पत्थर की बनी हुई गौतम की पत्नी अहिल्या का उद्धार करते हैं। 

मिथिला पहुंचकर राम शिव का विशाल धनुष तोड़ने में अपना पराक्रम दिखाकर बदले में जनक- क पुत्री सीता का पाणिग्रहण करते हैं। तब राजा दशरथ को मिथिला में बुलाया जाता है और अन्य पुत्रों लक्ष्मण, भरत तथा शत्रुध्न का जनक तथा उनके भ्राता कुशध्वज की पुत्रियों के साथ बड़ी धूमधाम से विवाह होता है। विवाह के बाद जब दशरथ अपने परिवार के साथ मिथिला से अयोध्या लौट रहे होते हैं तब मार्ग में उनकी परशुराम से भेंट होती है जो अपने इष्टदेव शिव के धनुष भंग का समाचार सुनकर आग-बबूला हो इसका बदला लेने के लिए उद्यत होते हैं। तब राम मदमत्त परशुराम के गर्व को नष्ट कर उन्हें नम्रता का पाठ पढ़ाते हैं तथा अपने विष्णु होने का प्रमाण देते हैं। इसके बाद लोग सुरक्षित तथा प्रसन्न अयोध्या लौटते हैं। 

द्वादश सर्ग

इस सर्ग में घटनाओं की भरमार है क्योंकि इसमें रामायण के पांच काण्डों की घटनाओं को संक्षेप में प्रस्तुत किया गया है। दशरथ ने यह जानकर कि अब वृद्धावस्था आ पहुंची है राम का यौवराज्याभिषेक करके उन्हें अयोध्या का राज-पाट सौंपना चाहा। परन्तु दशरथ की अभिलाषा पर उस समय पानी फिर गया जब कैकेयी ने दशरथ से राम का वनवास और भरत का राज्याभिषेक मांगा। राम 14 वर्ष के लिए वनवास को चले गये और वहां रावण ने सीता का अपहरण कर लिया। सुग्रीव और हनुमान जैसे वानरों की सहायता से राम ने अन्य राक्षसों सहित रावण का वध किया और अग्नि द्वारा सीता को पवित्र घोषित कर दिये जाने पर उन्होंने उसे पुनः स्वीकार कर लिया। 

त्रयोदश सर्ग

इस सर्ग और विगत सर्ग ( 12 ) में इस दृष्टि से वैषम्य है कि जहां पिछले सर्ग में घटनाओं की भरमार है वहां इस सर्ग में केवल एक ही घटना का विशद चित्रण है और यह घटना है-राम, लक्ष्मण और सीता के आकाश मार्ग से विमान द्वारा लंका से अयोध्या तक की यात्रा वर्णन की दृष्टि से इस सर्ग का अत्यधिक महत्त्व है। इस सर्ग में समुद्र का प्रयाग में गंगा-यमुना नदियों के संगम का तथा जनस्थान से तपोवनों का वर्णन अत्यन्त मोहक है और कालिदास की संवेदना जमकर खिली है। 

चतुर्दश सर्ग

अयोध्या लौटकर राम अपनी विधवा माता से मिलते हैं। राम के राज्याभिषेक के उपलक्ष्य में अयोध्या में कुछ समय के लिए फिर उत्सवों की धूम मच जाती है परन्तु हर्ष और उल्लास की यह बहार अधिक समय तक नहीं रहती क्योंकि राम को जब अपने गुप्तचर से ज्ञात होता है कि अयोध्या के (एक) धोबी नागरिक को सीता के चरित्र पर रावण के घर में उसके निवास करने के कारण, सन्देह है तो उन्हें विवश होकर न चाहते हुए भी सीता का परित्याग करना पड़ता है। 

इस व्यवहार से सीता को अपने जीवन के प्रति गहरी अरुचि हो जाती है। परन्तु फिर भी आत्महत्या न कर इसलिए जीवित रहना चाहती है क्योंकि उसके गर्भ में राम की वंशधर सन्तान है। वन में परित्यक्ता दुःखी सीता को वाल्मीकि सान्त्वना देते हैं और उसे अपने आश्रम में ले जाते हैं। वहां सीता, समय आने पर जुड़वां बालकों (लव और कुश ) को जन्म देती है। 

पंचदश सर्ग

बारहवें सर्ग के समान यह सर्ग भी घटनाओं से भरा पड़ा है। सर्ग के आरम्भ में यमुना तट के निवासी ऋषि-मुनि, दुष्ट 'लवण' से अपनी रक्षा करने के लिए राम से प्रार्थना करते हैं। तब राम द्वारा नियुक्त शत्रुघ्न 'लवण' का वध कर देते हैं। अयोध्या में किसी ब्राह्मण बालक की अकाल मृत्यु हो जाती है और उस बालक को पुनर्जीवित करने के उद्देश्य से राम को शूद्र होने पर भी तप करते हुए शम्बूक शूद्र की हत्या करनी पड़ती है। राम अश्वमेघ यज्ञ करते हैं जिसमें राम के पुत्र कुश और लव उपस्थित होते हैं जो वाल्मीकि द्वारा रचित 'राम कथा' गाकर सुनाते हैं। वाल्मीकि और राम के आग्रह करने पर सीता प्रजा के सामने उपस्थित होती हैं किंतु तभी पृथ्वी माता से प्रार्थना करती है कि यदि उसका (सीता का ) चरित्र निष्कलंक और पवित्र है तो वह (पृथ्वी) अपनी गोद में स्थान दे दे। सीता की इच्छा पूर्ण होती है और वह पृथ्वी की गोद में समा जाती है। इस घटना से राम अत्यंत व्यथित हो उठते हैं और वे अपने राज्य को अपने तथा भाइयों के पुत्रों में विभक्त कर साकेतधाम चले जाते हैं। राक्षसों के नाश का उनका लक्ष्य पूरा हो गया। यहीं पर कथावस्तु का मुख्य भाग सम्पूर्णता को प्राप्त करता है।

पोडश सर्ग

इस सर्ग में घटनाओं का उलटा क्रम चलता है। सूर्यवंश के यशस्वी राजाओं की उज्जवल परम्परा का पर्यवसान होने से सूर्यवंश का पतन प्रारम्भ हो जाता है। राम के पुत्र कुश, जिन्होंने अयोध्या के बदले कुशावती को अपनी राजधानी बनाया एक दिन स्वप्न में अयोध्या नगरी की अधिष्ठाती देवी को अपने सम्मुख खड़ा देखते हैं जो उन्हें बताती है कि कुशावती के राजधानी बन जाने से अयोध्या नगरी की दशा बहुत बुरी हो गई है। अतः कुश फिर अयोध्या को अपनी राजधानी बना लेते हैं। एक बार सरयू नदी में जल क्रीड़ा करते हुए कुश के हाथ का कंकण जल में गिरकर खो जाता है। सर्पों के राजा कुमुद कुश को कंकण लौटाते हुए अपनी बहन कुमद्वती को भी उसे अर्पित कर देते हैं।

सप्तदश सर्ग

इस सर्ग में कुमद्वती से उत्पन्न कुश के पुत्र 'अतिथि' राजा के सफल शासन का बहुत विस्तृत वृतान्त है।

अष्टादश सर्ग

इस सर्ग में अनेक राजाओं का उल्लेख आता है परन्तु उनके नाम को गिनाने के सिवाय उनके विषय में और कुछ नहीं कहा गया है। 

एकोनविंशति सर्ग 

इसमें रघुकुल के अन्तिम सम्राट् अग्निवर्ण का वर्णन है जो अत्यन्त विषयासक्त और स्त्री लम्पट होने के कारण क्षय रोग से पीड़ित होकर मर जाता है।

यह रघुवंश के 11 सर्ग का उल्लेख है।


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