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बिहारी सतसई दोहे १–९ तक अर्थ सहित

बिहारी सतसई 

 

बिहारी सतसई दोहे अर्थ सहित 

मेरी भव बाधा हरी, राधा नागरि सोइ |
जा तन की झांई परें स्यामु हरित-दुति होइ ||१||

वह ही नागरी राधिकाजी, जिनके शरीर की भालक पड़ते ही कृष्ण हरे हो उठते हैं, या जिनके शरीर की पीत आभा से मिलकर कृष्ण का सांवला रंग हरे रंग में परिणत हो जाता है, मेरी सांसारिक बाबाओं को दूर करें।

अपने अंग के जानि कै जोबन नृपति प्रवीन । 
स्तन, मन, नैन, नितंत्र को बड़ौ इजाफा कीन ॥२॥

यौवन के आते ही वाला के स्तन, मन, नेत्र और नितंब बढ़ जाते हैं, मानो चतुर नरेश कामदेव ने इन्हें अपने पक्ष के मानकर इनकी अभिवृद्धि कर दी है।

अर तैं टरत न बर परे, दई मरक मनु मैन । 
होड़ाहोड़ी वढ़ि चले चितु, चतुराई, नैन ॥३॥

नवयौवना के हृदय में उल्लास, उसकी चेष्टाओं में चातुर्य और उसके नेत्रों में विशालता - ये सब इस तरह बढ़ रहे हैं, मानो इन्होंने कामदेव से उत्तेजना पाकर एक-दूसरे से आगे बढ़ जाने की होड़ लगा रखी हो। इनमें से कोई भी अपने हठ से पीछे नहीं हटता ।

घोरै-थोप कनीनिकनु गनी धनी- सिरताज |
मनीं धनी के नेह की बनीं छनी पट लाज || ४||

उसकी पुतलियों में तो कुछ ऐसी आभा है कि वह अपनी सारी सीतों की सरताज मानी जाती है। पुतलियां क्या हैं, मानो प्रिय के प्यार की मणियां हैं, जिन पर लाज का आवरण पड़ा रहता है ।

सनि- कज्जल चख झख लगन उपज्यो सुदिन सनेहु । 
क्यों न नृपति ङ्ख भोगवै लहि सुदेसु सव देहु || ५||

इस प्रेम रूपी शिशु का जन्म भी कैसे सुंदर लग्न में हुआ है-उस
समय नेत्र रूपी मीन में कज्जल-रूपी शनि पड़ा हुआ था; अतः वह
अवश्य ही देह-रूपी समस्त देश का स्वामी बनकर उसका उपभोग
करेगा ।

सालति है नटसाल सी, क्यों हूं निकसति नांहि । 
मनमथ-तेजा- नोक सी खुभी खुभी जिय मांहि ||६||

उसके कर्ण - फूल की नोक तो मेरे हृदय में ऐसी चुभ रही है, मानो वह कामदेव के भाले की नोक हो । वह किसी प्रकार निकलती ही नहीं ।

जुड़ति जोन्ह मैं मिलि गई, बैंक न होति लखाइ ।
 जुत्रति जोन्ह सौंधे के डोर लगी अली चली संग जाइ ||७||

वह युवती चांदनी में इस प्रकार मिल गई है कि किंचित भी दिखाई नहीं पड़ती । सखियां (या भीरे) तो केवल उसकी सुगंध-रूपी डोरों के सहारे ही उसके साथ-साथ जा रही हैं ।

हौं रीझी, लखि रीझिहो छविहि छबीले लाल । 
सोनजुही-सी होति दुति-मिलन मालती माल ॥८॥

संदर छैल ! उसकी छवि को देखकर मैं तो मुग्ध हो गई हूं, तुम भी हो जाओगे । उसके शरीर की कांति ऐसी है कि मालती के फूलों की माला भी उससे मिलकर सोनजुही की-सी लगने लगती है । 

बहके सब जिय की कहत, ठोरु कुठोरु लखै न । 
छिन और छिन और से, ए छवि छाके नैन ॥९॥


मेरे नेत्र सौंदर्य में छककर ऐसे बहल गए हैं कि इन्हें ठौर और कुठौर का भी ध्यान नहीं रहता। ये क्षण-क्षण में ही कुछ से कुछ होकर
मेरे मन की सारी बात प्रकट कर देते हैं ।


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