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बिहारी सतसई दोहे १०–१८ तक अर्थ सहित

बिहारी सतसई 

 

बिहारी सतसई दोहे अर्थ सहित भाग - २


फिरि फिरि चितु उत हीं रहतु, टुटी लाज की लाव । 

अंग-अंग छबि-झोर मैं भयौ भौर की नाव ।। १० ।।

मेरे मन की नाव उसके अंग-प्रत्यंगों के सौंदर्य-रूपी भंवर में फंस गई है, उसकी लज्जा का बंधन टूट गया है और वह वार-बार उसी की ओर ही जाती है ।

नीकी दई अनाकनी, फीकी परी गुहारि । 

तज्यौ सनौ तारन-विरदु वारक बारनु तारि ॥ ११ ।।

हे भगवान ! आपने अच्छी अनसुनी कर रखी है ! मेरी सारी पुका व्यर्थ हो गई । लगता है आपने एक बार हाथी को तारकर ही हमेशा वे लिए इस धंधे से छुट्टी पाली है !

चितई ललचो हैं चखनु डटि घूंघट-पट मांह । 

छल सौं चली छुवाइ कै छिनकु छबीली छांह ।। १२।।

उसने रुककर पहले तो घूषट के परदे में से मुझे ललचाई दृष्टि रे देखा और फिर वह सुंदरी मेरे पास से इस तरह निकल गई कि उसक छाया ने क्षण-भर के लिए मुझे छू लिया।

जोग-जुगति सिखए सबै मनी महामुनि मैन । 

चाहत पिय-अद्वैतता काननु सेवत नैन ॥ १३ ।।

इस वाला के नेत्र कान-रूपी कानन की सेवा कर रहे हैं। शाय महामुनि कामदेव ने इन्हें संयोग-साधना की सारी युक्तियां सिखा है हैं, अव वे केवल प्रिय से एकाकार होना चाहते हैं।

खरी पातरी कान की, कौन वहाऊ बानि । 

ग्राक-कली न रली करै अली, अली, जिय जानि ।। १४ ।।

तू भी कान की बड़ी कच्ची है ! यह वहक जाने की तेरी कैस श्रादत है ! सत्री, जरा मन में यह तो सोच कि क्या कोई भींग कभी आक की कली के साथ मन बहला सकता है !

पिय-विद्युरन को दुसहु दुखु, हरपु जात प्यौसार । 

दुरजोधन लौं देखियति तजत प्रान इहि बार ।। १५ ।।

एक ओर तो पति से विछुड़ने का दुःसह्य दुख है तो दूसरी ओर पित् के घर जाने की प्रसन्नता है। देखिए, कहीं इसी दुविधा में वह दुयं धन की भांति अपने प्राणों को न त्याग दे !

झीनें पट मैं झुलमुली झलकति श्रोप श्रपार । 

सुरतरु की मनु सिंधु मैं लसति सपल्लव डार ।। १६ ।।

महीन आंचल में से उसकी अपार सौंदर्यवाली भुलमुली झलक रह है । लगता है, मानों कोई कल्पवृक्ष की डार पत्तों सहित समुद्र में सुशं भित हो रही है।

डारे ठोड़ी-गाड़, गहि, नैन वटोही, मारि । 

चिलक चौंध में रूप-ठग, हांसी-फांसी डारि ।। १७ ।।

उसका सौन्दर्य क्या है- पूरा ठग है! पहले उसने नेत्र-रूपी पथिक को अपनी चमक-दमक से चौंधिया कर हंसी का फंदा उनके गले में डाल दिया और फिर उन्हें निष्प्राण करके ठोड़ी के गढ्ढे में फेंक दिया ।

कीन हूं कोरिक जतन अव कहि काढ़ें कौनु । 

मो मन मोहन-रूप मिलि पानी मैं कौ लौनु ॥ १८ ।।

मेरे मन में मोहन का रूप इस तरह मिल गया है, जैसे पानी लवण घुल जाता है। बताओ, अव करोड़ों उपाय करके भी उसे को निकाल सकता है !

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