महाकवि अश्वघोष
भगवान् सुगत के जनकल्याणकारी विश्वधर्म का प्रचार राजा तथा प्रजा दोनों में हो चुका था। देवानां प्रिय प्रियदर्शी अशोक के द्वारा एक ओर इस धर्म का भारत से बाहर बृहत्तर भारत तथा एशिया में प्रसार किया गया, दूसरी ओर बौद्धधर्म के आधारभूत तथागत के वाक्यों का संरक्षण करने के लिए उसने बौद्ध भिक्षुओं की परिषद् बुलाई, जो इतिहास में तृतीय संगीति के नाम से प्रसिद्ध है। इसी समय भगवान् बुद्ध के निर्वाण के बाद हुई दो संगीतियों के द्वारा निर्धारित सिद्धान्तों का पुनः संशोधन व संरक्षण करने की चेष्टा की गई। भगवान् बुद्ध के वचनों तथा उनके जीवन, उपदेश और दर्शन से सम्बद्ध देश-भाषा (मागधी प्राकृत) के बौद्ध साहित्य का सङ्कलन कर उन्हें विनय-पिटक, सुत्त-पिटक तथा अभिधम्म-पिटक में संगृहीत किया गया, जो त्रिपिटक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
बौद्धधर्म के प्रवल प्रचार में एक मनोवैज्ञानिक तत्त्व काम करता है, जो किसी भी नये धर्म के अनुयायियों में पाया जाता है। जहाँ तक बौद्ध धर्मानुयायियों के धार्मिक उत्साह का प्रश्न है, इस दृष्टि से बौद्धों के धार्मिक उत्साह की-सी मनोवैज्ञानिक प्रकृति हम ईसाई धर्म के अनुयायियों में देखते हैं। जो कार्य ईसाई सन्तों ने भगवान् ईसा के दया, त्याग तथा विश्वप्रेम के सन्देश को जनता तक फैलाने में किया, ठीक वही कार्य उनसे कई गतियों पहले से भगवान् सुगत के त्यागी शिप्य भारत व पूर्व में कर रहे थे। जनता में प्रसार होने पर भी ईसाई तथा चौद्ध धर्म दोनों ही तेजी से तभी बढ़ सके, जब कि उन्हे गजाश्रय प्राप्त हुआ।
बौद्धधर्म के प्रसार की गति तीव्रतर तभी हो सकी, जब भयोक ने भगवान् सुगत के पदचिह्नों पर चलना अपना लक्ष्य बनाया । टीक इन्नी तरह ईसाई धर्म के प्रचार में रोमन बादशाह कॉन्स्टेन्टाइन का ईसाई धर्म का अङ्गीकार कर लेना महत्त्वपूर्ण कारण है। ईसाई धर्म की तरह बौद्धधर्म को उन्नति का दूसरा कारण दीनों के प्रति की गई करुणा तथा भ्रातृ-भाव था। बौद्धधर्म ने ब्राह्मण या वैदिक धर्म के अभिजात्य का पर्दा फाश फर, जाति-प्रथा, घंटे धार्मिक पाखण्ड आदि का आलवाल नष्ट कर, सब जानियों को अपनी छाती से लगाना तथा परम सुख व शान्ति देना स्वीकार किया। इस दृष्टि से वौद्ध धर्म के उत्थान में उस काल की सामाजिक स्थिति भी यहुन एछ सहायक हुई थी। पर वैदिक धर्म की विरोधित्ता करने पर भी चौद्ध धर्म वैदिक धर्म तथा पौराणिक ब्राह्मण प्रवृत्ति की जडे न हिला मका, उसके कई कारण हैं. जिनमें कुछ सामाजिक स्थितियाँ, कुछ पौराणिक धर्म के गुण तथा कुछ बौद्ध धर्म की निजी कमियाँ मानी जा सकती है।
प्रियवीं अनोक के बाद बौद्ध धर्म को जो प्रबल राजाश्रय मिला, यह गुझनया के प्रसिद्ध राजा कनिष्क का व्यचित्य था। कनिष्क ने अशोक के धने काम को पूरा किया, उसने बौद्धधर्म का प्रचार करने के लिए बौद्ध निलो को मध्यणुनिया, चीनी नुचिस्तान, कोग्यिा नथा चीन भेजा। या। नार्ग, चीन के साथ स्थापित मंत्री नथा वैवाहिक सम्बन्ध ने भी कनिष्क केएम कार्य ने उहुत बड़ी महायना की। जहो अशोक भारत के दक्षिण रानभा मुदपूर्व बह्मदेश, धम्मा, श्याम, यवद्वीप, सुवर्णद्वीप में चोद्वधर्म या प्रचार परने में अधिक सफल हुआ, यहाँ कनिष्क ने तथागत के जनधर्म को मध्यएशिया में फैलाया तथा चीन में उसके संवर्द्धन का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उसने स्वयं बौद्ध भिक्षुओं, पण्डितों व दार्शनिकों की सभा बुलाकर बौद्ध धर्म के धार्मिक तथा दार्शनिक सिद्धान्तों की मीमांसा को प्रश्रय दिया और अश्वघोष जैसे महान् कवि, दार्शनिक तथा पण्डित के निरीक्षण में भगवान् बुद्ध के वचनों को ठोस दार्शनिक भित्ति देने में सहायता की।
अशोक तथा कनिष्क के समय के वीच निश्चय ही ब्राह्मण धर्म वौद्धधर्म को पददलित करने के लिए अनेक प्रयत्न कर चुका होगा। किन्तु बौद्ध भिक्षुओं के पवित्र, त्यागपूर्ण तथा निश्छल चरित्र, बौद्धधर्म का आतृभाव, विश्वप्रेम, करुणा का सिद्धान्त तथा बौद्धभिक्षुओं एवं अनुयायियों का अपने धर्म के प्रचारार्थ किया गया अदम्य उत्साह, बौद्ध धर्म की उन्नति उस समय तक करता ही रहा, जब तक बौद्ध भिक्षुओं का यह उत्साह समाप्त न हो सका तथा उनका चारित्रिक अधःपतन उनके नैतिक स्तर को न गिरा सका। फलतः इस काल में एक ओर बौद्ध धर्मानुयायी तथा दूसरी ओर ब्राह्मण पौराणिक धर्म के मानने वाले लोग भी इन दोनों के बीच की गहरी खाई पाटने की चेष्टा में रहे होंगे। पुराणों में भगवान् सुगत को विष्णु के २४ अवतारों की तालिका में एक स्थान देना इस प्रवृत्ति का एक पहलू है तथा महायान सम्प्रदाय से संस्कृत भाषा की प्रतिष्ठापना और ब्राह्मण धर्म की भाँति भगवान् बुद्ध की भक्तिमय (साकारोपासनात्मक?) अर्चना इसी प्रवृत्ति का दूसरा पहलू । महाराज कनिष्क के समय में हमें इस प्रवृत्ति के बीज फूटते दिखाई देते हैं और इस प्रवृत्ति के अहुरों में अश्वघोष का दार्शनिक तथा कवि एक महत्त्वपूर्ण व्यक्तित्व है।
अश्वघोष का काल व जीवनवृत्त
संस्कृत साहित्य के प्राचीनतम कवियों में अश्वघोष उन इने-गिने व्यक्तियों में से हैं, जिनके रचनाकाल के विषय में विद्वानों में अधिक मतभेद नहीं। बौद्ध ग्रन्थों ने अश्वघोष के विषय में आवश्यक जानकारी को सुरक्षित रखा है और यही नहीं, अश्वघोष के ग्रन्थों को भी मूल तथा अनुवादरूप में सुरक्षित रखा है। यह दूसरी बात है, कि बौद्ध किंवदन्तियों के कारण कई ग्रन्थ, जो अश्वघोष की रचनाएँ नही, अश्वघोष के नाम पर प्रसिद्ध कर विये गये हों तथा कुछ दूसरे समसामयिक चौद्ध व्यक्तित्वों को अश्वधोप के साथ घुला मिला दिया गया हो। पर इतना होने पर भी यह तो निश्चित-सा है कि अश्वघोष कनिष्क के समकालीन थे।
चीन में सुरक्षित परम्परा के अनुसार अश्वबोप महाराज कनिष्क के गुरु थे। कुछ लोगों के मतानुसार अश्वयोप ही महायान सम्प्रदाय तथा माध्यमिक शून्यवाद के मूल प्रवर्तक थे। पर इस विषय में विद्वानों के दो मत हैं।
माध्यमिक शून्यवाद के प्रवर्तक नागार्जुन थे तथा यह महायान शाला का दर्शन होने के कारण कुछ लोगों ने अखघोष को महायान सम्प्रदाय के प्रवर्त्तक मानकर माध्यमिक शून्यवाद से भी सम्बद्ध कर दिया है। कुछ विद्वान् अश्वघोष को महायान सम्प्रदाय का अनुयायी मानने को भी तैयार नहीं तथा इनके मतानुसार महायान सम्प्रदाय का उदय अश्वघोष के समय तक न हुआ था तथा अश्वघोष के लगभग १०० वर्ष यात्र का है।
इस मत के मानने वाले विद्वान् प्रसिद्ध यौडदार्शनिक ग्रन्थ 'महायान अद्धोत्पाद-संग्रह' को अश्वघोष की कृत्ति मानने के लिए तैयार नहीं। इस मत फेप्रबल पोपड़ों में अध्यापक वितरनित्स नथा तरुाकुमु हैं। जन कि इस ग्रन्थ के चीनी अनुवाद के आधार पर आंग्ल अनुबाद के उपन्थापक प्रो० ती० सुजुकी के मतानुसार इस ग्रन्थ के न्चविना अश्वघोष ही थे। इस प्रकार अश्वघोष का महायान सम्प्रदाय के
विकास में एक महत्त्वपूर्ण योग रहा है, यह अनुमान अनुचित न होगा तथा इसकी पुष्टि अश्वघोष के काव्यों से भी हो जाती है।
अश्वघोष सुवर्णाक्षी के पुत्र थे तथा इनका जन्मस्थान साकेत (अयोध्या) था। ये आर्य, भदन्त, महापण्डित, महावादिन् तथा महाराज आदि विरुदों से अलंकृत थे। सौन्दरानन्द महाकाव्य की पुष्पिका तथा बुद्धचरित के अनुपलब्ध मूल के तिब्बती अनुवाद के आधार पर डॉ० जौन्स्टन कृत आंग्ल अनुवाद की पुष्पिका से यह स्पष्ट है कि वे साकेतक थे तथा उनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी था।'
अश्वघोष निश्चितरूप से नागार्जुन से प्राचीन हैं तथा नागार्जुन का उल्लेख हमें जगय्यपेटस्तूप के लेख में मिलता है, जो उसके प्रशिव्य के द्वारा उत्कीर्ण कराया गया है। इस स्तूप के लेख की तिथि ईसा की तीसरी शती मानी है तथा इसके आधार पर नागार्जुन की तिथि ईसा की दूसरी शती सिद्ध होती है। अश्वघोष नागार्जुन से लगभग दो पीढी पुराने होंगे तथा इस तरह उनका समय कनिष्क के राज्यकाल के समीप ही आता है। इस आधार पर भी यह सिद्ध होता है कि अश्वघोष कनिष्क के समसामयिक थे तथा उनका काल ईसा की प्रथम शताब्दी है।
अश्वघोष के इस काल के विषय में अन्य अन्तरङ्ग तथा वहिरंङ्ग प्रमाण भी दिए जा सकते हैं। प्रथम ईसा की पाँचवीं शती में बुद्धचरित का चीनी अनुवाद हो चुका था, अतः इससे पूर्व अश्वघोष का काव्य अत्यधिक लव्धातिष्ठ हो चुका था। दूसरे, बुद्धचरित महाकाव्य का अन्तिम २८ वॉ
सर्ग अशोक की संगीति का वर्णन करता है। फलतः अश्वघोष अशोक के पश्चादावी थे। तीसरे, अश्वघोष तथा कालिदास की शैलियों की तुलना से पता चलता है कि अश्ववोप की कला कालिदास की कला की भूमि तैयार करती है। मग्भवतः कुछ लोग अश्वघोप को कालिदास का ऋणी मानना चाहें, किन्तु अश्वघोप में उपलब्ध आर्प प्रयोग, (जो कालिदास में वहुत कम है, यो कहिये है ही नहीं) तथा अश्वघोष की कला के खुरदरे सौन्दर्य (रफ व्यूटी) की अपेक्षा कालिदास का अत्यधिक स्निग्ध सौन्दर्य (पोलिश्ड व्यूटी), अश्वघोष की प्राग्भाविता को पुष्ट करते है। चौथे, बौद्धपरम्परा के अनुसार महाकवि अश्वघोष कनिष्क के समकालीन थे। पाँचवे, अश्वघोषकृत शारिपुत्रयकरण के आधार पर प्रो० ल्यूडर्स ने यही कल्पना की है कि उसकी रचना कनिष्क या हुविष्क के समय हुई थी। छठे, मातृचेट की 'रातपञ्चाशिका' की शैली अश्वघोष की शैली से स्पष्टतः प्रभावित जान पड़ती है। डॉ० जीन्स्टन के मनानुसार मातृचेट कनिष्क का समकालीन था। सम्भवतः अश्वघोप तथा मानुचेट या तो समसामयिक थे, या इनमे एक आध पीड़ी का ही अन्तर था।