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Ugc net hindi लाल पान की बेगम - फणीश्वर नाथ रेणु कहानी व्याख्या सहित और उद्देश्य,कथानक,ग्राम्य जीवन

 लाल पान की बेगम - फणीश्वर नाथ रेणु (कहानी)


"लाल पान की बेगम" कहानी के आधार पर ग्राम्य परिवार का रहन. सहन, मानसिकता और ग्राम्य जातियों के आपसी सम्बन्ध, इर्ष्या, द्वेष और प्रेम. भावना को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है।

फणीश्वर नाथ रेणु : संक्षिप्त परिचय

फणीश्वर नाथ रेणु ने प्रेमचंद के बाद के काल में हिन्दी में श्रेष्टतम गद्य रचनाएं की। इनके पहले उपन्यास मैला आंचल को बहुत ख्याति मिली थी जिसके लिए उन्हें प‌द्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। जीवनी फणीश्वर नाथ रेणु का जन्म बिहार के अररिया जिले के फॉरबिसगंज के निकट औराही हिंगना में हुआ था। प्रारंभिक शिक्षा फॉरबिसगंज तथा अररिया में पूरी करने के बाद इन्होंने मैट्रिक नेपाल के विराटनगर के विराटनगर आदर्श विद्यालय से कोईराला परिवार में रहकर की। 

इन्होंने इन्टरमीडिएट काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से 1942 में की जिसके बाद वे स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। बाद में 1950 में उन्होनें नेपाली क्रांतिकारी आंदोलन में भी हिस्सा लिया जिसके परिणामस्वरूप नेपाल में जनतत्र की स्थापना हुई। 1052-53 के समय वे भीषण रूप से रोगग्रस्त रहे थे जिसके बाद लेखन की ओर उनका झुकाय हुआ। उनके इस काल की झलक उनकी कहानी तो एकला चलो रे में मिलती है। उन्होंने हिन्दी में आंचलिक कथा की नींव रखी।

लेखन शैली

इनकी लेखन-शैली वर्णणात्मक थी जिसमें पात्र के प्रत्येक मनावैज्ञानिक सोच का विवरण लुभावने तरीके से किया होता था। पात्रों का चरित्र निर्माण काफी तेजी से होता था क्योंकि पात्र एक सामान्य सरल मानव मन के अतिरिक्त और कुछ नहीं होता था। इनकी लगभग हर कहानी में पात्रों की सोच घटनाओं से प्रधान होती थी। एक आदिम रात्रि की महक इसका एक सुंदर उदाहरण है।

इनकी लेखन-शैली प्रेमचंद से काफी मिलती थी और इन्हें आजादी के बाद का प्रेमचंद की संज्ञा भी दी जाती है।

अपनी कृतियों में उन्होनें आंचलिक पदों का बहुत प्रयोग किया है। अगर आप उनके क्षेत्र से हैं (कोशी), तो ऐसे शब्द, जो आप निहायत ही ठेठ या देहाती समझाते है. भी देखने को मिल सकते है आपको इनकी रचनाओं में।

साहित्यिक कृतियां

उपन्यास- मैला आंचल, परती परिकथा, जूलूस, दीर्घतपा, कितने चौराहे, पलटू बाबू रोड, कथा संग्रह- एक आदिन रात्रि की महक, ठुमरी, अग्निखोर, अच्छे आदमी !

रिपोर्ताज ऋणजल धनजल नेपाली क्रांतिकथा वनतुलसी की गंध श्रुत अश्रुत पूर्वे !

प्रसिद्ध कहानियां - मारे गये गुलफाम (तीसरी कसम), एक आदिम रात्रि की महक, 'लाल पान की बेगम', पंचलाइट, तबे एकला चलो रे, ठेस संवदिया !

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लाल पान की बेगम - फणीश्वर नाथ रेणु


लाल पान की बेगम की संक्षेप में तात्विक समीक्षा

कहानी के तत्वों के आधार पर 'लाल पान की बेगम की समीक्षा प्रस्तुत है-

कथानक

बिरजु, चम्पिया और उसके माता पिता कोयरी टोले नाम के गाँव में रहते हैं। बिरजु के पिता पटसन और धान की खेती 'करते हैं और विरजु की मों ग्रामीण घरेलू महिला है। इनका परिवार छोटे कुल से सम्बन्ध रखता है।

पटसन की खेती में अच्छी पैदावार होती है जिससे बिरजु के पिता बैलों का एक जोड़ा खरीद लेता है और उसी दिन से कोयरी टोले में कहता फिरता है की 'बिरजू की माँ इस बार बैलगाड़ी पर चढ़ कर जायेगी नाच देखने"

परन्तु बिरजू के पास खुद की गाड़ी नहीं थी। मात्र बैल ही थे। इस तरह बलरामपुर का नाच देखने के लिए बैल गाड़ी में जाने के लिए बिरजु की माँ, बिरजु और चम्पिया बहुत उत्सुक है। बलरामपुर जाना है गाड़ी से, पैदल नहीं यह बात बिरजु की माँ को अन्दर से आनान्दित किये जाती है। वह पूरे गाँव में कहती फिरती है- "इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बैठाकर बलरामपुर का नाच दिखलाऊँगा।"

जब नाच देखने का दिन आता है। तो बिरजु के पिता को 'कोयरी टोले' खुद के ही गाँव में गाड़ी नहीं मिल पाती वह परेशान होकर दूसरे गाँव मलदहिया से गाड़ी माँगने चला जाता है। फणीश्वरनाथ 'रेणु' ने लानपान की बेगम के माध्यम से कोयरी टोले के ग्रामीण अंचल में धड़कने वाला जीवन का सफलता पूर्वक अंकन किया।

ग्रामीण परिवेश में गाय, बेल, खेत, खलिहान का बहुत महत्व है। वहाँ व्यक्ति की सम्पन्नता को इसी पैमाने से नापा जाता है।

बिरजू की माँ जो एक ग्रामीण महिला है एक अरमान लेकर बैठी है की वह गाड़ी में बैठेगी। जब बिरजू के बप्पा की खेत में पटसन की खेती ठीक होती है। तो वह बैल खरीद लेता है और पत्नि को उस बैलगाड़ी में बैठाकर बलरामपुर के नाच में ले जाने की बात कहता है।

जिसका बिरजू की माँ एक माह से इन्तजार करती है और वह सब तय कर लेती है कि साथ में क्या पकाएँगी क्या. क्या पहनेगी, बच्चों को क्या पहनाएँगी, वह बहुत खुश है कि वह गाड़ी में बैठकर बलरामपुर जाएँगी। जब बिरजू के बप्पा पूरे दिन गाड़ी नहीं लाते है। तो उसका मन बैचेन हो जाता है। वह किसी से ठीक से बात नहीं करती है। पास. पडोस की स्त्रियाँ उसके इस व्यवहार का ठीक मतलब नहीं समझ पात्ते है और सोचते हैं कि उसे घमण्ड आ गया है। ऐसी ही एक ग्रामीण महिला मखनी बुआ जो

बिरजू की माँ की पड़ोसन है बिरजू की माँ से पूछ बैठती है। "क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जायेगी क्या?" तो बिरजू की माँ मखनी बुआ को तीखा सा जबाब देती है "आगे नाथ और पीछे मगहिया न हो तब न फुआ।"

चूंकि मखनी फुआ अकेली है। उसका कोई नही है अतः यह बात बुआ को अन्दर तक धँस जाती है। इसी बात की चर्चा मखनी फुआ पनभरनियों से कर के अपनी कुण्ठा निकालती है और कहती है। "जरा देखो तो इस बिरजू की माँ को। चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है। धरती पर पाँव ही नही पड़ते"

निसाफ करो! खुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की गली गली में बोलती फिर रही है, हाँ इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है, बैलगाड़ी पर बैठकर बलरामपुर का नाच दिखालाने जाऊँगा। बैल अब अपने घर है तो हजार गाडियाँ मँगनी मिल जायेगी। सो मैने अभी टोक दिया, नाच देखने वाली सब तो और. पौन कर तैयार हो रही है। रसोई. पानी कर रही है। मेरे मुँह में आग लगे, क्यों मैं टोने गयी, सुनती हो क्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने?" और वह सब पानी भरने वाली महिलाओं से कहती है।

गाँव में जब महिलाएँ पनघट पर एकत्रित होती है। तो वे आपस में एक दूसरे की चुगली करती है। जो इस कहानी की आँचलिकता का बोध कराता है।

जब मखनी फुआ अपनी पूरी बात कह चूकी होती है। तब जंगी की पतोहू (पोते की बहू) जो सभी महिलाओं में निडर है, वह बिरजू के पिता की तरक्की के राज को कहानी बनाकर कहती है। "फुआ आ! सरवे सित्तलमिंटी (सर्वे सेट्लमेण्ट) के हाकिम के बासा पर फुलछाप किनारी वाली साड़ी पहन के यदि तु भी भंटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता। फिर तुम्हारे घर भी आज दस मन सोनाबांग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदती। फिर आगे नाथ और सैकड़ों पगहिया झुलती।"

जब बिरजू की माँ जंगी को पतोहु की बातें सुन लेती है। तो वह उससे कुछ न कह कर गुस्सा अपनी बेटी चम्पी पर निकाल कर देती है।

बिरजू की माँ जंगी की फतोहू को सीधे सीधे कुछ न बोलकर अपनी बेटी चम्पियाँ को माध्यम बनाकर हुड़क देती है। जिसे जंगी की पतोहू समझ कर ताना, मारते हुये बिरजू की माँ को कहती है- इस मुहल्ले में 'लाल पान की बेगम' बसती है। नहीं जानती है।"

ताना सुनकर बिरजू की माँ और अधिक विचलित हो अपने की बेटी को डाँटती है। और फिर उसे गाड़ी की याद आती है। शाम हो जाने पर भी बिरजू के बप्पा नहीं लौटता है तो बिरजू को वह परेशान होकर ही बुरा भला कहती है। और मन. ही. मन परेशान होती है की सब पैदल से जाने वाले लोग ही बलरामपुर पहुँच गये होगे। और वह अपना गुस्सा बकरी पर और बच्चों पर उतारती है।

परन्तु कुछ ही देर बाद बिरजू के बप्पा गाड़ी के साथ लौट जाता है। परन्तु उसकी पत्नी को विश्वास नहीं होता है कि गाड़ी मिल गई है।

वह लेटी रहती है। दरवाजा खोलने नहीं उठती पिता दोनों बच्चों का आवाज लगाते है। पर भी नहीं उठते है। कुछ देर बाद बिरजु की माँ उठ जाती है। उसका पति धान की बालियाँ लेकर आया है। उसे देखकर उसके मन का क्रोध समाप्त होने लगता है।

बिरजु के पिता उसे मेला चलने, और तैयारी करने के लिए कहता है। जिससे वह  स्वीकार नहीं करती है। परन्तु वह बताता है कि "नाच अभी शुरू भी नहीं हुआ होगा। अभी. अभी बलरामपुर के बाबू की कम्पनी गाड़ी मोहनपुर होटिल बँगला से हाकिम साहब को लाने गयी है।"

इतना सुनकर ही बिरजू की माँ की आँखे चमक उठती है। वह जल्दी जल्दी तय कार्यक्रम निबटाती है और चलने के लिए तैयार हो जाती है।

बिरजू के पिता जब गाड़ी लेकर आता है तो बिरजू की माँ का गुस्सा ऐसे गायब हो जाता है। जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। वह बहुत खुश होती है। उसे लगता है उसने सब पा लिया अब उसके मन में कोई लालसा नहीं है। परिवार में आनन्द का वातावरण छा जाता है। बिरजू की माँ रोटी बनाने के लिए फुआ को हँसती हुई बुलाती है। बिरजू की माँ के हृदय में परिवर्तन हो जाता है। वह जंगी की पुत्रवधू तथा अन्य झगड़ा करने वाली स्त्रियों को भी साथ ले चलती है वह हृदय के उल्लास में दूसरों पर प्रेम प्रकट करने लगती है-

"बिरजू की माँ ने जंगी की पतोहू की ओर देखा, धीरे धीरे गुनगुना रही है। वह भी कितनी प्यारी पतोहू है। गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने बिरजू की माँ बेगम है। 'लाल पान की बेगम'! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँ, वह सचमुच 'लाल पान की बेगम है।"

कहानी का अन्त सूखान्त है। सारी कहानी मनोविज्ञान का आधार लेकर चली है। मन की लालसा , रीझ. खीझ, कुढ़न आदि की स्थान. स्थान पर सुन्दर अभिव्यक्ति हुई है।

इस तरह कहानी ग्रामीण जीवन का सफल अंकन करती है। उनकी जीवन शैली मानसिक स्थिति, व्यवहार परम्परा, रीति. रिवाज शौक का दर्शन हम लालपान की बेगम में पाते है।

 पात्र योजना एवम् उनके चरित्र चित्रण

चरित्र चित्रण की दृष्टि से यह कहानी बहुत सफल है। "लाल पान की बेगम" कहानी में बिरजू के पिता, माँ, बिरजू, चमिया, चम्पा, जंगी आदि प्रमुख पात्र हैं। बिरजू की माँ इस कहानी की नायिका है।

चरित्र. चित्रण का आधार मनोवैज्ञानिक है। बिरजू की माँ कहानी की नायिका है, उसका स्वभाव कोमल है और वह दिल की साफ है। वह नाच देखने की अपनी लालसा पूरी होती नहीं देखती। इसी कारण गाँव की स्त्रियों के व्यंग्य पर यह क्रोधित हो उठती है, वह झुंझलाहट बकरे तक पर उतारती हुई कहती है-

"कल ही पंचकौड़ी कसाई के हवाले करती हूँ राक्षस तुझे। हर चीज में मुँह लगावेगा। चम्पिया बाँध दे बकरा को। खोल दे गले की घण्टी। टुमुर टुमुर मुझे जरा नहीं सुहाता।"

इस कहानी के पात्रों का कथाकार ने सुन्दर और स्वाभाविक चरित्रों के साथ कल्पना का भी उपयुक्त सहारा लिया है। जंगी की पतौहू का चित्रांकन कितना आकर्षक है, इसे देखिए

बिरजू की माँ ने जंगी की पतौहू की ओर देखा, धीरे धीरे गुन. गुना रही है वह भी, कितनी प्यारी पतौहू है। गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गन्ध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने बिरजू की माँ बेगम है 'लाल पान की बेगम'! यह तो कोई बुरी बात नहीं। हाँ वह सचमुच लान पान की बेगम हैं।"

नायिका बिरजू की माँ चरित्र किस प्रकार से क्रोध और ईर्ष्या सहित धर्मभीरुता का शिकार है, इसका है, चित्रांकन कहानीकार ने इस प्रकार से किया है-

बिरजू की माँ धर्मभीरू है। उसका नाच देखने का कार्यक्रय अस्त व्यस्त हो जाता है। उसे भगवान की नाराजी का भय होता हैं-

'महावीर का रोट तो बाकी है। हाय रे देवमूल-चूक माफ करो महावीर बाबा! मनौती दूगनी करके चढ़ावेगी बिरजू की माँ।" पति के गाड़ी ले आने पर बहु प्रसन्न हो जाती है। और 'लाल पान की बेगम' बनी हुई सबको लेकर नाच देखने चल देती है।"

 वातावरण

"लाल पान की बेगम" का देशकाल ग्रामीणांचल है। ग्रामीण वातावरण के उस भाग को कथाकार ने यहाँ लिया है. जो निरा अशिक्षित और रूढ़िग्रस्त तो है लेकिन वह स्वतन्त्र और स्वाभाविक है। देशकाल या वातावरण का एक चित्रांकन इस प्रकार है-

भक् भक् बिजली बत्ती। तीन साल पहले सर्वे कैम्प के बाद गाँव की जलनडाही औरतों ने एक कहानी गढ़के फैलायी थी, चम्पिया की माँ के आंगन में रात. भर बिजली बत्ती मुक. भुकाती थी। चम्पिया की माँ के आंगन में नालवाले जूते की छाप घोडे की टाप की तरह।"

इस कथन से कथाकार ने ग्रामीण परिवेश का चित्र परिस्थिति और वातावरण के अनुकूल ही प्रस्तुत किया है।

 भाषा शैली

रेणु जी भाषा. शैली के अद्भुत शिल्पी है। इस कहानी की भाषा ग्रामीण वातावरण को बड़ी सफलता से प्रस्तुत कर देती है। ग्रामीण अंचल के शब्दों के प्रयोग के साथ में गाँवों में बोले जाने वाले अंग्रेजी के विकृत शब्दों का भी प्रयोग हुआ है जैसे- टीसन, ठेठर, वैसकोप आदि का स्वाभाविक प्रयोग है। मुहावरों के प्रयोग से भाषा की व्यंजना शक्ति बढ़ गई है। सींग खुजाते फिरना, आगे नाथ न पीछे पगहिया, चुडेल मंडराना आदि मुहावरों का सुन्दर प्रयोग है। ठेठ ग्रामीण शब्दों से भाषा में मिठास आ गई है।

चित्रात्मकता और बोधगम्यता इस कहानी की शैली की प्रमुख पहचान है। लेखक की मनोविश्लेषणात्मक पद्धति अधिक सफलता के साथ इस कहानी में व्यक्त हुई है।

 कथोपकथन

कथोपकथन की दृष्टि से यह कहानी बहुत सफल है। गाँव का वातावरण यथार्थ रूप से सामने आ जाता है। यह कहानी आँचलिक है। अतः इसमें गाँव की स्थानीय बोली का पुट मिलता है। कथोपकथन में नाटकीयता, मार्मिकता और स्वाभाविकता है। सारे कथोपकथन चरित्र प्रकाशन में सहायक है। वे कथानक को भी गति प्रदान करते हैं कहानी के अन्त में छोटे. छोटे कथोपकथन बहुत सफल और सुन्दर बन पड़े है। कुछ उदाहरण लीजिए-

(1) जरा देखो इस बिरजू की माँ को ! चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पाँव नहीं पड़ते। निसाफ करो! खुद अपने मुँह से आठ दिन पहले से ही गाँव की गली. गली में बोलती फिरती है।'

(2) 'अरी चम्पिया.या.या, आज लौटे तो तेरी मुड़ी मरोड़कर चूल्हे में झोंकती हूँ! दिन. दिन बेचाल होती जाती है।.... गाँव में तो अब ठेठर. वैसकोप का गीत गाने वाली पतुरिया पतोहू सब आने लगी हैं। कहीं बैठके 'कहींबाजे न मुरलिया' सीख रही होंगी ह.र-जा.ई। अरी चम्पिया.याःया!

(3) सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहु आइन की ही दुकान पर मोती झरते हैं. जो जड़. जड़कर बैठी थी। बोल, गले पर घात देकर कल्ला तोड़ दूँगी हरजाई, जो फिर कभी 'बाजे न मुरलिया' गाते सुना। चाल सीखने जाती है टीशन की छोकरियों से।

(4) 'ए मैया, एक अँगुली गुड़ दे ! देना मैया, एक रत्तभर।'

"लाल पान की बेगम" कहानी के संवाद अधिक सरल और भावनुकूल है। इससे कहानी का क्रम अधिक गतिशील और भावप्रद रूप में व्यक्त होने में सहजता दिखाई देती है। "लाल पान की बेगम" के कथोपकथन वास्तव में यथार्थपूर्ण और विश्वसनीय रूप में है। 

जैसे- बिरजू ने धान की एक बाली से एक धान लेकर मुँह में डाल दिया और उसकी माँ ने एक हल्की डांट दी। कैसा भुक्कड़ है तू रे! इन दुश्मनों के मारे कोई नेम धरम जो बंचे। क्या हुआ, डांटती क्यों है ?

अरे, इन लोगों का सब कुछ माफ है। चिरई चुनमुन है ये लोग। बस, हम दोनों के मुँह में नवान्न के पहले नया अन्न न पड़े।

ओ भैया, इतना मीठा चावल ।

 उद्देश्य

गाँव के व्यक्तियों के संस्कार, रूचि, अरुचि, परम्पराओं रूढियों एवम् उनकी परिवेश को मार्मिक और स्वाभाविक रूप से प्रस्तुत करना ही लेखक का मुख्योद्देश्य रहा है। इसके साथ ही इस कहानी में लेखक ने ग्रामीण जन. जीवन की खास मनोवृत्तियों का रेखांकन करना भी एक निश्चित उद्देश्य लिया है। यही कारण कि इस कहानी के पात्रों का बखूबी से मनोवविश्लेषण हुआ है। क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, अभिलाषा, निराशा आदि मनोविकारों के प्रभाव को भी इस कहानी में यर्थार्थ रूप में दिखाया गया है। इस प्रकार से इस कहानी का उद्देश्य बिल्कुल स्पष्ट और सार्थक सिद्ध हो जाता है।

 शीर्षक

नायिका के आधार पर शीर्षक बड़ा उपयुक्त और सार्थक है। नायिका ही आद्यान्त सारे कथानक पर छाई है। जंगी की पुत्रवधू बिरजू की माँ को व्यंग्य में "लाल पान की बेगम" कहती थी। बिरजू की माँ इस सम्बोधन से चिढ़ती थी, परन्तु बिरजू की माँ जब सजकर नाच देखने चली, तो वह अपना "लाल पान की बेगम" नाम सार्थक समझने लगी। "बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों नेत्र केन्द्रित करने की चेष्टा करके अपने रूप की झाँकी ली। लाल साड़ी की झिलमिल किनारी माँग कि टीका पर चाँद।"

 ग्राम्य परिवार का रहन सहन और मानसिकता का चित्रण

फणीश्वर नाथ रेणु आंचलिक कथाकारों के सिरमौर हैं। 'लाल पान की बेगम' कहानी ग्रामीण अंचल के ताने-बाने में बुनी हुयी है। बिरजू के पिता ने जब बैल खरीदे थे उसी समय यह ऐलान कर दिया था कि वह इस बार बलरामपुर का नाच दिखाने घर के सभी लोगों को बैलगाड़ी ले जायेगा। बस यही से कहानी की शुरुवात होती है और पूरा ग्रांम्य जीवन कथा के साथ-साथ आकार लेने लगता है।

बिरजू के पिता में सर्वे सेटलमेंट में जमीन ले थी और उसी से पैसे बचाकर बैल खरीद लिये थे। इसने अपने खेत में मेहनत करके घान बोये। इन सब कारणों से आस-पड़ोस के लोग बिरजू की माँ से थोड़ी ईर्ष्या रखते हैं। जंगी की पूतोंडू इसी पर कटाक्ष करते हुए कहती है-फुआ-आ! सरवे सित्तलमिंटी (सर्वे सिटलमेंट) के हाकिम के बासा पर फूलछाप किनारी वाली साड़ी पहन के यदि तू भी भंटा की भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता। फिर तुम्हारे घर भी आज उस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदती। फिर आगे नाथ और सैकड़ों पगहिया झूलती।

ग्रामीण प्रतिस्पर्धा का इससे अच्छा उदाहरण देखने को नहीं मिलेगा। जब किसी परिवार के पास थोड़ी सी भी धन-सम्पत्ति एकत्रित होने लगती है तो गाँवों में ऐसी स्पर्धाएं स्वाभाविक हुआ करती हैं। इसी प्रकार एक-दूसरे पर कटाक्ष करना और एक-दूसरे का हास- परिहास करना जनमानस का मुख्य ध्येय होता है। इसका एक उदाहरण देखिये- 'जंगी की पुतोहू ने बिरुजू की माँ की बोली का स्वाद लेकर कमर पर घड़े को संभाला और मटककर बाली-चल दिदिया चल! इस मुहल्ले में 'लाल पान की बेगम' बसती है। नहीं जानती. दोपहर दिन और चौपहर रात बिजली की बत्ती भक-भक कर जलती है।'

भक्-भक् बिजली बत्ती की बाल सुनकर न जाने क्यूं सभी खिल-खिलाकर हंस पड़े। फुआ की टूटी हुई दंत पंक्तियों में बीच से एक मीठी गाली निकली शैतान की नानी।'

इसी प्रकार बिरजू की माँ का अपने बेटी चम्पिया से किया गया व्यवहार गाँवों की मानसिकता को सिद्ध करता है। बिरजू की माँ ने चम्पिया को गुड़ लाने के लिये भेजा था। जब बहुत देर बाद वह वापिस आती है तो बिरजू की माँ का गुस्सा सातवें आसमान पर होता है- 'मिट्टी के बरतन से टपकते हुए छोवा-गुड़ को उंगलियों से चाटती हुई चम्पियां आई और माँ के तमाचे खाकर चीख पड़ी मुझे क्यों मारती है ए-ए-ए-ए? सहुआइन जल्दी से सौदा नहीं देती है एँーएँएँएँ

'सहुआइन जल्दी सौदा नहीं देती की नानी! एक सहुआइन की ही दुकान पर मोती झड़ते हैं जो जड़ गाड़कर बैठी हुई थी। बोल. गले पर लात देकर तल्ला तोड़ दूंगी हरजाई जो कभी 'बाजे न मुरलिया गाते सुना। चाल सीखने जाती है टीशन की छोरियों से ।

चम्पियां ने अपनी माँ को जैसे ही बताया कि पिताजी को बैलगाड़ी माँगने पर कोयेरी टोले में किसी ने भी नहीं दी है अब वे मलदहिया टोले से गाड़ी माँगने गये हैं। तब बिरजू की माँ की मानसिकता का चित्रण पूरे ग्रामीण परिवेश का चित्रण बनकर उभरता है। उदाहरण द्रष्टव्य है-"सुनते ही बिरजू की माँ का चेहरा उतर गया। लगा छाते की कमानी उतर गयी घोड़े से अचानक। कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी मंगनी नहीं दी। तब मिल चुकी गाड़ी। जब अपने गाँव के लोगों की आँख में पानी नहीं तो मलवहिया टोली के मियांजान की गाड़ी का क्या भरोसा। न तीन में न तेरह में! क्या होगा शकरकंद छीलकर ! रख दे उठा के! यह मर्द नाच दिखायेगा ! बैलगाड़ी पर चढ़ाकर नाच दिखाने ले जायेगा ! चढ़ चुकी बैलगाड़ी पर, देख चुकी जी भर नाच! पैदल जाने वाली सभी पहुँचकर पुरानी हो चुकी होंगी।"

जंगी की पुतोहू ने जब भक्-भक् बिजली बत्ती वाली बात कही थी तब उसे याद करके बिरजू की माँ की मनोदशा ग्रामीण परिवेश का बहुत सुन्दर विश्लेषण करती प्रतीत होती है। गाँवों में छोटी-छोटी बातों को लेकर आपस में प्रतिस्पर्धा का वातावरण निर्मित हो जाता है और लोगों के मन में कई तरह के अंधविश्वास भी साकार रूप ग्रहण करते से दिखाई पड़ते हैं। यह कथन इस तथ्य को भलीभांति चरितार्थ करता है-'बिरजू की माँ के मन में रह-रहकर जंगी की पुतोहू की बातें चुभती हैं, भक्-भक् बिजली बत्ती .... चोरी-चमारी करने वाले की बेटी-पुतोहू जलेगी नहीं! पांच बीघा जमीन क्या हासिल की है बिरजू के बप्पा ने, गाँव की भाई खौकियों की आंखों में क़िरकिरी पड़ गई है। खेत में पाट लगा देखकर गाँव के लोगों की छाती फटने लगी, धरती फोड़कर पाट लगा है, वैशाखी बादलों की तरह उमड़ते आ रहे पाट के पौधे ! तो अलान तो फलान! इतनी आंखों की धार फला फसल सहे! जहाँ पन्द्रह मन पाट होना चाहिए, सिर्फ उस मन पाट कटा कर तौल के ओजन हुआ रब्बी भगत के यहाँ।

इस प्रकार कहानी में गाँवों में निवास करने वाले लोगों के तरह-तरह के विचार उनकी मानसिकता को तो प्रदर्शित करते ही हैं साथ ही ग्रामीण परिवेश की झांकी भी प्रस्तुत करते हैं। जब बिरजू की माँ फुआ को आवाज लगाती है कि वह उसके यहाँ आकर मीठी रोटी बना दे और उसके यहाँ रात भर रुककर घर की रखवाली भी कर दे तो दोनों के मध् य होने वाला वार्तालाप तथा फुआ का अंतर्द्वद्ध ग्रामीण जीवन की झांकी प्रस्तुत करता है।

'अरी फुआ-बिरजू की माँ ने हँसकर जवाब दिया-उस समय बुरा मान गयी थी क्या? नाथ पगहिया वाले को आकर देखो, दो-पहर रात में गाड़ी लेकर आया है। आ जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती।

फुआ कांखती-खाँसती आयी इसी से घड़ी पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जायेगी क्या? कहती तो मैं पहले से ही अपनी अंगीठी यहाँ सुलगा जाती।

बिरजू की माँ ने फुआ को अंगीठी दिखला दी और कहा घर में अनाज दाना बगैरह तो कुछ है नहीं, एक बागड़ है और कुछ बरतन बासन। सो रात भर के लिए यहाँ तंबाकू रख जाती हूँ। अपना हुक्का तो ले आई हो न फुआ? फुआ से तम्बाकू मिल जाये तो रात भर क्या, पांच रात बैठकर जाग सकती है। फुआ ने अंधेरे में टटोलकर तंबाकू का अंदाज किया... ओ-हो। हाथ खोलकर तम्बाकू रखा है बिरजू की माँ ने और वह एक सहुआइन । राम कहो! उस रात को अफीम की गोली की तरह एक मटर-भर तम्बाकू रखकर चली गई गुलाब बाग मेले और कह गयी कि डिब्बी भर तम्बाकू है।'

इसी प्रकार बिरजू की माँ मुँह से कितनी भी खरी-खोटी बच्चों से सुन ले या गाँव की औरतों से किन्तु उसका मन अत्यन्त सहज सरल और भावुक हृदय वाला है। जब बिरजू के पिता बैलगाड़ी लेकर आ जाते हैं तो वह जल्दी-जल्दी अपने बच्चों को तैयार करती है और गाँव की अन्य औरतों को भी याद कर करके अपने साथ बैलगाड़ी में नाच देखने के लिये ले जाती है। ऐसी सहज-सहज वृत्ति ग्रामीण जीवन का दृश्य उपस्थित कर देती है।

गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा-जरा जंगी से पूछो न उसकी पुतोहू नां देखने चली गयी क्या?' गाड़ी रुकते ही जंगी के झोपड़े से आती हुई रोने की आवाज स्पष्ट हो गयी। बिरजू के बप्पा ने पूछा-'अरे जंगी भाई! काहे कन्ना रोहट हो रहा है आंगन में?

जंगी घूर ताप रहा था, बोला क्या पूछते हो, रंगी बलरामपुर से लौटा नहीं, पुत्तोहिया नाच देखने कैसे जाये। आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गयी।

'अरी टीशन वाली तो रोती है काहे। बिरजू की माँ ने पुकार कर कहा आ झट से कपड़ा पहनकर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है। बेचारी... आजा जल्दी।

बगल के झोपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा-काकी, गाड़ी में जगह है? मैं भी आ जाऊंगी।

बाँस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गयी है। गिलट का झुमकी-कड़ा पहनकर झमकती आ रही हैं।

'आजा! जो बाकी रह गयी है सब आ जाएं जल्दी।

ऐसी आत्मीयता गाँवों में ही देखने को मिल सकती है। विवाद चाहे जितना भी हो जाये लेकिन आत्मीयता की यह डोर अभी भी ग्रामीण जीवन को उजला बनाये हुये है। ग्रामीण जीवन का रहन सहन और उसकी मानसिकता आज भी गाँवों को जीवंत और परिवेश को स्वच्छता प्रदान करती है। इसीलिये हमारे राष्ट्र को गाँवों का देश कहा जाता है। रंणुजी ने इस कहानी के माध्यम से ग्रामीण परिवेश का अद्भुत चित्र प्रस्तुत किया है।

 ग्राम्य जातियों के आपसी सम्बन्ध, इर्ष्या, द्वेष और प्रेम. भावना का चित्रण

"लाल पान की बेगम" कहानी भारत के गाँवों की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करने में पूर्णतया सक्षम है। इस कहानी में ग्रामीण सम्बन्धों की गहराई है तो वहीं दूसरी ओर एक-दूसरे के राग-द्वेष का चित्रण है तो कही आपसी प्रेमभाव के दर्शन होते हैं। इस प्रकार सभी सम्बन्धों को निभाने वाली इस कहानी में हम देखते हैं कि आज गाँवों में किस तरह से आपसी सम्बन्धों पर कटाक्ष किये जाते हैं-"पड़ोसन मखनी फुआ की पुकार सुनाई पड़ी क्यों बिरजू की माँ, नाच देखने नहीं जायेगी क्या?'

बिरजू की माँ के आगे नाथ और पीछे पहिया न हो तब न. फुआ! गरम गुस्से में बुझी नुकीली बात फुआ की देह में धँस गयी और बिरजू की मी ने हाथ के ढेले को पास ही फेंक दिया.... बेचारे बागड़ को कुकुरमाछी परेशान कर रही है।'

गाँवों में छोटी-छोटी बातों को लेकर आपसी सम्बन्धों में खटास सहज देखी जा सकती है। मखनी फुआ को जब बिरजू की माँ ने कटाक्ष किया तो वह बुरा मान गयी और गाँव की बाकी औरतों को बड़े आवेश में बताने लगी- "मखनी फुआ नीम के पास झुकी कमर से घड़ा उतारकर पानी भरकर लौटती पनभरनियों से बिरजू की माँ की बहकी हुई बात का इंसाफ करा रही थी-जरा देखो तो इस बिरजू की माँ को चार मन पाट (जूट) का पैसा क्या हुआ है, धरती पर पाँव नहीं पड़ते। बिसात करो! खुद अपने ही मुँह से आठ दिन पहले से गाँव की अली-गली में बोलती फिरी है. हाँ इस बार बिरजू के बप्पा ने कहा है कि, बैलगाड़ी पर बैठकर बलरामपुर का नाम दिखलाऊंगा। बैल अब अपने घर हैं, तो हजार गाड़ी मंगनी मिल जायेगी। सो मैंने अभी टोंक दिया, नाच देखने वालों सब तो औन पौन कर तैयार हो रही हैं, रसोई पानी कर रही हैं। मेरे मुँह पे आग लगे. क्यों में टोकने गई! सुनती हो क्या जवाब दिया बिरजू की माँ ने ।'

मखनी फुआ ने अपने पोपले मुँह के ओठों को एक ओर मोड़कर ऐंठती हुई बोली निकाली 'अर-रे-हाँ हाँ! बि-र-र-जू की माँ, या के आगे नाथ और.... पीछे पगहिया ना हो, तब्ब-ना-आ-आ।

इस प्रकार के दृश्य गाँवों में आगे-बगाहे देखने को मिल जाते हैं। आज गाँवों में राग द्वेष का वातावरण आर्थिक असमानता के कारण भी दिखाई पड़ता है। थोड़ा-सा धन यदि किसी के पास आ गया तो गाँव के अन्य लोग इस पर टीका-टिप्पणी करने से बाज नहीं आते। जंगी की पुतोहू का यह कथन दृष्टव्य है-

फुआ-आ! सरवे सित्तमिंटी (सर्वे सेटेलमेंट) के हाकिम के बास पर फूलछाप किनारी वालो साड़ी पहन के यदि तू भी भेंटी चढ़ाती तो तुम्हारे नाम से भी दु-तीन बीघा धनहर जमीन का पर्चा कट जाता। फिर तुम्हारे घर भी उस मन सोनाबंग पाट होता, जोड़ा बैल खरीदती।' फिर आगे नाथ और सैकड़ों पगहिया झूलती।"

चम्पिया ने जब घर आकर बिरजू की माँ को बताया कि पिताजी बैलगाड़ी लेने मलदहिया टोला गये हैं क्योंकि कोयरी टोले में किसी ने बैलगाड़ी नहीं दी है, तो बिरजू की माँ के चेहरे पर उदासी छा गयी। उसे लगा कि अब वह बलरामपुर का नाच देखने नहीं जा पायेगी। तब उसके मन से कोयरी टोला के लोगों के लिये द्वेष के भाव जाग पड़े। वह कहती है-"कोयरी टोले में किसी ने गाड़ी मँगनी नहीं दी, तब मिल चुकी गाड़ी। जब अपने गाँव के लोगों की आंख में पानी नहीं तो मलदहिया टोली के मियांजान की गाड़ी का क्या भरोसा?" न तीन में न तेरह में।"

बिरजू की माँ मन ही मन यह विचार कर रही है कि जब सर्वे का समय आया था तभी बिरजू के पिता ने सभी गाँव वालों को समझा दिया था कि सर्वे के समय जमीन आवंटित करवा लो नहीं तो पूरी जिंदगी मजदूरी करनी पड़ेगी। तब किसी की कान में जूं नहीं रेंगी। अब जब बिरजू के पिता ने अपनी जमीन पर खेती करके थोड़ा धन इक‌ट्ठा किया है तो गाँव की आंखों में क्यों किरकिरी हो रही है। वह कहती है कि इसमें जलने की क्या बात है भला... बिरजू के बप्पा ने तो कुर्मा टोली के एक-एक आदमी को समझा के कहा था जिंदगी पर मजदूरी करते रह जाओगे। सर्वे का समय आ रहा है, लाठी कड़ी करो, दो-तीन बीघे जमीन हासिल कर सकते हो। सो गाँव की किसी पूतखौकी का भलार सर्वे के समय बाबू साहेब के खिलाफ खाँसा भी नहीं।... बिरजू के बप्पा को एक सहना पड़ा है। बाबू साहेब गुस्से में सरकस नाच के बाघ की तरह हुमड़ते रह गये। उनका बडा बेटा घर में आग लगाने की धमकी देकर गया।"

इस प्रकार गाँव का वातावरण रागद्वेष से परिपूर्ण तो है ही लेकिन वहां पर आपसी अत्मीय भाव भी है जिसका कारण गाँवों में आज भी आपसी मेल-जोल का स्वस्थ वातावरण दिखाई पड़ता है। जब घर की रखवाली के लिये बिरजू की माँ मखना फुआ को आवाज लगवाती है तो वह उलाहना अवश्य देती है, पर बिरजू की माँ के पास आ जरूर जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि आपसी प्रेम भाव कहीं ज्यादा है तभी तो मखनी फुआ कहती है- 'हां, अब फुआ को क्यों गुहारती है? सारे टोले में बस एक फुआ ही तो बिना नाथ-पगहिया वाली है।

'अरी फुआ!' बिरजू की माँ ने हंसकर जवाब दिया, उस समय बुरा मान गयी थी? नाथ-पगहिया वाले को आकर देखो, दो-पहर रात में गाडी लेकर आया है। आ जाओ फुआ, मैं मीठी रोटी पकाना नहीं जानती! फुआ कांखती-खांसती अभी इसी से घड़ी-पहर दिन रहते ही पूछ रही थी कि नाच देखने जायेगी क्या? कहती तो मैं पहले ही अपनी अंगीठी यहाँ सुलगा जाती।'

बिरजू की माँ जब अपने पूरे परिवार के साथ बैलगाड़ी में बैठकर बलरामपुर का नाच देखने के लिये निकलती है तो वह गाँव की हर एक औरत को अपने साथ बैलगाड़ी में बिठा लेना चाहती है। इससे यह प्रतीत होता है कि आपस में रागद्वेष जितना भी हो पर उनके हृदय स्वच्छ है और उनके मन में एक-दूसरे के लिये प्रेम भाव भी है तभी तो वे एक-दूसरे को दुखी नहीं देख सकते है। इसका एक सशक्त उदाहरण दृष्टव्य है-

'गाड़ी जंगी के पिछवाड़े पहुँची। बिरजू की माँ ने कहा जरा जंगी से पूछो न उसकी पुतोहू नाच देखने चली गई क्या? गाड़ी रुकते ही जंगी के झोपड़े से आती हुई रोने की आवाज स्पष्ट हो गयी। बिरजू के बप्पा ने पूछा अरे जंगी भाई काहे का रोहट हो रहा है आँगन में?"

जंगी घूर ताप रहा था, बोला- 'क्या पूछते हो, रंगी बलरामपूर से लौटा नहीं, पुतोहिया नाच देखने कैसे जाये। आसरा देखते-देखते उधर गाँव की सभी औरतें चली गयीं। "अरी टीशन वाली, तो रोती है काहे। बिरजू की माँ ने पुकार कर रहा आ जा झट से कपड़ा पहनं कर। सारी गाड़ी पड़ी हुई है। बेचारी ! आ जा जल्दी। बगल के झोपड़े से राधे की बेटी सुनरी ने कहा-'काकी गाड़ी में जगह है? मैं भी जाऊंगी।

बांस की झाड़ी के उस पार लरेना खवास का घर है। उसकी बहू भी नहीं गयी है।

गिल्ट का झुनकी कड़ा पहनकर झमकती आ रही है।

'आ जा! जो बाकी रह गयी है सब आ जाये जल्दी।'

ऐसा प्रेम भाव का वातावरण वर्तमान में केवल गाँवों में ही देखने को मिल सकला है। जहाँ एक ओर वे आपस में छोटी-छोटी बातों पर लड़ते दिखाई पड़ते हैं वही अवसर आने पर वे सभी एक-दूसरे के साथ मिलकर आत्मीयता का वातावरण निर्मित करते हैं। एक-दूसरे की तारीफ करते हैं एक-दूसरे के गुणों का बखान करते हैं। गाँव का प्राकृतिक सौंदर्य ग्रामवासियों की तरह ही निर्मल कोमल और स्वच्छ होता है-

"गाड़ी गाँव से बाहर होकर धान के खेतों के बगल से जाने लगी। चांदनी, कार्तिक की .... खेतों से धान के झरते फूलों की गंध आती है। बांस की झाड़ में कहीं दुद्धी की लता फूली है। जंगी की पुतोहू ने एक बीड़ी सुलगाकर बिरजू की माँ की ओर बढ़ाई। बिरजू की मी को अचानक याद आया, चम्पिया, सुनरी, लरेना, की बीबी और जंगी की पुतोहू ये चारों ही तो बैसकोप का गीत गाना जानती हैं।.....

इस प्रकार हम यह कह सकते है कि "लाल पान की बेगम कहानी में ग्रामीण परिवेश में आपसी सम्बन्धों की मिठास, प्रेम भाव कहीं अधिक आत्मीय रूप से चित्रित हुये हैं। रागद्वेष का चित्रण जो कहानीकार ने किया है वह स्वाभाविक रूप से उत्पन्न वातावरण का परिणाम है। परन्तु गाँवों के निवासियों में जो प्रेम, लगाव और आत्मीयता है वह हमारे गाँवों का वास्तविक दृश्य उपस्थित करने में पूरी तरह से समर्थ है।

व्याख्या खण्ड

गद्यांश 1.

डाही औरतों ने एक कहानी गढ़ के फैलाई थी, चम्पिया की माँ के आँगन में रात मर बिजली बत्ती मुक-मुकाती थी। चम्पिया की माँ के आँगन में नाल वाले जूते की छाप घोड़े की टाप की तरह ...... जलो, जलो ! और जलो! चम्पिया की माँ के आँगन में चाँदी जैसे पाट सूखते देखकर जलने वाली सब औरतें खलिहान पर सोनोली धान के बोझों की देखकर बैंगन का भुर्ता हो जायेंगी।

सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर' कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम कहानी से उधृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश में यह विवेचित किया गया है कि गाँव की टोना टोटका करने वाली औरतों ने यह बात फैलाई है कि चम्पिया की माँ के घर में बिजली बत्ती झक-झुक कर जलती है जिसमें लोग उसके और उसके घर के लोगों से सम्बन्ध न रखें और वे लोग गाँव में अकेले पड़ जायें।

व्याख्या: बिरजू की माँ कहती है कि गाँव की टोना टोटका का करने वाली औरतों ने ही तीन साल पहले यह बात प्रचारित की थी कि चम्पिया की माँ के आँगन में बिजली बत्ती भक-मक करके जलती बुझती है और उसके आँगन में नाल वाले जूतों की छाप तथा घोड़ों की टाप देखी जा सकती है। अतएव चम्पिया की माँ जादू-टोना जानती है और वह इसी कारण अपने प्रभाव से सर्वे टीम को अपने बस में करके पाँच बीघा जमीन ले रही है। चम्पिया की माँ कहती है कि जब मेरे आँगन में चाँदी की तरह चमकने वाल पाट (जूट) की ढेरियां लगेंगी तब पूरे गाँव वाले देखकर जलेंगे। इसी तरह जब खलिहान (जहाँ धान एकत्रित करके रखा जाता है) में सोने की बाल सी दिखाई पड़ने वाली धान की गठरियां रखी जायेंगी तो गाँव वाले देख देखकर बैंगन के भुर्ते की तरह जलेंगे।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में ग्रामीण परिवेश में किस तरह एक दूसरे परिवार का मजाक बनाया जाता है. विश्लेषित किया गया है।

2. इस अंश में ग्रामीण वातावरण का सुन्दर चित्रण किया गया है।

गद्यांश 2

पहले से किसी बात का मनसूबा नहीं बाँधना चाहिए किसी को ? भगवान ने मनसुबा तोड़ दिया। उसको सबसे पहले भगवान से पूछना है, यह किस चूक का फल दे रहे हो भोला बाबा! अपने जानते उसने किसी देवता-पित्तर की मान-मनौती बाकी नही रखी। सर्वे के समय जमीन के लिये जितनी मनौतियों की थीं... ठीक ही तो! महाबीरजी का शेर तो बाकी ही है। हाय रे दैव.... भूल चूक माफ करो महाबीर बाबा! मनौती दूनी करके चढ़ायेगी बिरजू की मौं।

सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर' कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम कहानी से उधृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग : जब बिरजू के पिता बैलगाड़ी लेकर नहीं आते हैं तो बिरजू की माँ के मन में तरह-तरह के सवाल उठने लगते हैं। वह सोचने लगती है कि उसने भगवान को नाराज कर दिया है इसीलिये वह बलरामपुर का नाच देखने नही जा रही है।

व्याख्या: प्रस्तुत अंश में यह बताया गया है कि जब बिरजू के पिता बैलगाड़ी लेकर नहीं आ पाते हैं तो बिरजू की माँ के मन में तरह-तरह के ख्याल आते हैं। उसे लगता है कि पहले से कोई मनसूबा नहीं तैयार करना चाहिये। भगवान ने ही हमारे विचार पूरा नहीं होने दिया होगा। वह सोचती है कि उसने तो कभी भी भगवान की पूजा-अर्चना में कोई कमी नहीं छोड़ी है। तब भगवान ने उसका मनसूबा क्यों पूरा नहीं होने दिया? वह बलरामपुर का नाध देखने जाना चाहती है और अभी तक बिरजू के पिता को बैलगाड़ी नहीं मिल पाई है। वह पुनः विचार करती है कि सर्वेक्षण के समय जमीन खरीदने के लिये उसने जितनी मन्नतें मानी थीं वा समी तो उसने पूरी कर दी हैं. फिर अचानक उसे गाद आता है कि महावीरजी के लिये की गई मन्नत तो अभी बाकी है। त बवह फिर महावीरजी से प्रार्थना करती है कि उसे माफ कर दें और वह यह प्रतिज्ञा करती है कि वह महावीर बाबा में दुगनी मनौती चढ़ायेगी।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में ग्रामीण अंधविश्वास का वर्णन किया गया है।

2. प्रस्तुत गद्यांश में यह बताया गया है कि जब तक सारे संसाधन एकत्रित हो जायें तब तक कोई भी कार्यक्रम तय नहीं कर लना चाहिये।

3. प्रस्तुत अंश में ग्रामीणों की धर्म भिरूता विश्लेषित की गई है।

गद्यांश 3

बिरजू की माँ दिन-रात मंझा न देती रहती तो ले चुके थे जमीन। रोज आकर माथा पकड़कर बैठ जायें, मुझे जमीन नहीं लेनी है बिरजू की माँ, मजदूरी ही अच्छी.... जवाब देती थी निरजू की माँ खूब सोच-समझा के। छोड़ दो, जब तुम्हारा कलेजा ही थिर नहीं होता है तो क्या होगा। जोरू जमीन जोर के, नहीं हो किसी और के।

सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर' कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम कहानी से उद्धृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग: प्रस्तुत अंश में सर्वेक्षण के समय जमीन खरीदने को लेकर बिरजू की माँ हमेशा जोर देती रही। इसी कारण बिरजू के पिता के पास आज जमीन है। वह तो हमेशा अपने हथियार डाल देता था और मजूरी करके ही जीवन काट देने को राजी था। किन्तु बिरजू की माँ ही थी कि जो उसे हमेशा प्रोत्साहित करती रहती थी।

व्याख्या: प्रस्तुत व्याख्यांश में यह बताया गया है कि यदि बिरजू की माँ लगातार दबाव न बनाती है तो बिरजू के पिता सर्वेक्षण के समय जमीन न खरीद पाते। दिन भर सर्वेक्षण दल के आगे पीछे घूमने के बाद जब शाम को घर आकर बिरजू के पिता सिर पर हाथ रखकर बैठ जाते थे कि अब मैं मजदूरी करके ही जीवन काट लूँगा जमीन नहीं खरीद पाऊंगा। लेकिन बिरजू की भौ ही थी कि हठ करके अड़ी रही और बिरजू के पिता को समझाती रही कि जमीन खरीदने से घर की दरिद्रता खत्म हो जायेगी। बीच-बीच में वह उसे उलाहना भी देती था क्योंकि स्त्री के द्वारा दी गई उलाहना से पुरूष का पुरुषत्व जाग उठता है इसलिये वह उसे यहाँ तक कह देती है कि अगर तुम स्त्री को जमीन खरीद नहीं दिखा सके तो वह किसी और की हो जायेगी। इस तरह से बिरजू की माँ अपने पति को जमीन खरीदने के लिये प्रोत्साहित करती रही और उसी का परिणाम है कि बिरजू के पिता के पास पांच बीघा जमीन है।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में स्त्री द्वारा पुरूष को प्रोत्साहित कर जमीन खरीदने का सुन्दर वर्णन किया गया है।

2. प्रस्तुत अंश में कहावतों मुहावरों के माध्यम से तथ्य को स्पष्ट करने का सुन्दर प्रयोग किया गया है।

गद्यांश 4

लो खूब देखो नाच! वाह रे नाच! कथरी के नीचे दुशाले का सपना कल भोरे पानी भरने के लिये जब आयेगी पतली जीभ वाली पतुरिया सब हँसती आयेगी, हंसती जायेगी.... सभी जलते हैं उससे, हाँ, भगवान दाढ़ीजार भी... दो बच्चों की माँ होकर भी वह जस की तस है। उसका घरवाला उसकी बात में रहता है। वह बालों में गरी का तेल डालती है। उसकी अपनी जमीन है किसी के पास एक घुर जमीन भी अपनी इस गाँव में! जलेंगे नहीं, तीन बीघे में धान लगा हुआ है, अगहनी। लोगों की बिखदिट से बचे तब तो।

सन्दर्भ : प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर' कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम कहानी से उद्धृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश में जब बिरजू के पिता बैलगाड़ी नही ला पाते हैं तब बिरजू की माँ की मनःस्थिति का चित्रण किया गया है। अभी तक उसने पूरे टोले मे यह बात प्रचारित कर दी थी कि वह इस बार बैलगाड़ी में बैठकर बलरामपुर का नाच देखने जायेगी लेकिन जब कल सुबह सारी स्त्रियाँ उससे पूछेंगी तो वह क्या जबाब देगी। इसका द्वन्द्व विवेचित है।

व्याख्या: बिरजू की माँ स्वयं को उलाहना देती हुई कहती है कि नाच देखने का बहुत शोक था अब बैलगाड़ी मंगनी में नहीं मिल पायी है तो खूब नाल देख लो। वह कहती है कि जब स्वयं में सामर्थ्य न हो तो सपने नहीं देखना चाहिए। वह सोचती है कि जब कल पनघट पर गाँव की सभी स्त्रियाँ मिलेगी तो मेरा मजाक उड़ायेंगी। पतली जीम वाली पतुरिया भी मेरी हंसी उड़ायेगी। क्योकि उसकी सम्पन्नता और बातचीत के कारण उससे सभी जलते हैं। वह यहाँ तक सोच लेती है कि भगवान भी उससे जलने लगे हैं। वह कहती है कि सभी सोचते हैं' कि दो बच्चों की माँ होने बाद भी उसका सौन्दर्य जस का तस है. उसका पति भी उसकी बात मानता है, उसके पास जमीन है, वह हर दृष्टि से सम्पन्न है।

गाँव मे किसी के पास भी जरा सी जमीन नहीं है और उसके तीन बीघे की जमीन पर अगहन का धान लगा हुआ है। वह कहती है कि लोगों की बुरी नजरों से वह बच जाये तभी तो ान बच पायेगा।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ का अर्न्तद्वन्द्व अत्यन्त प्रभावी ढंग से प्रस्तुत हुआ हैं।

2. प्रस्तुत अंश में कहावतों मुहावरों का सुंदर प्रयोग सराहनीय है।

गद्यांश 5

बिरजू को गोद में लेकर बैठी उसकी माँ की इच्छा हुई कि वह भी साथ-साथ गीत गाये। बिरजू की माँ ने जंगी की पुतोहू की ओर देखा, धीरे-धीरे गुनगुना रही है वह भी। कितनी प्यारी पुतोहू है। गौने की साड़ी से एक खास किस्म की गंध निकलती है। ठीक ही तो कहा है उसने बिरजू की भौ बेगम है, 'लाल पान की बेगम'। यह तो कोई बुरी बात नहीं है। ही वह सचमुच 'लाल पान की बेगम' है।

सन्दर्भ : प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर' कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम" कहानी से उद्धृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ, बिरजू, चम्पिया, जंगी की पुतोहू लरेना की बीबी, राधे की बेटी सुनरी आदि बैलगाड़ी में सवार होकर बलरामपुर का नाच देखने जा रहे हैं। बिरजू की माँ ने सभी को गीत गाने के लिये कहा और अब वह आत्मवलोकन करती हुई कहती है।

व्याख्या : प्रस्तुत व्याख्यांश में बिरजू की माँ टोले की अन्य स्त्रियों को साथ लेकर बलरामपुर का नाच देखने जा रही है। उसने अत्यन्त मातूल भाव से अपने बेटे बिरजू को अपनी गोद में सुला रखा है और उसका मन हुआ कि वह भी अन्य स्त्रियों के साथ-साथ गीत गाने लगे। जंगी की पुतोहू की तरफ देखकर बिरजू की माँ को ऐसा लगा कि वह कितनी सुन्दर है। गौने की साड़ी पहनकर जब वह बैठी है तो उसमें से एक पृथक खुश्म आ रही है जो उसे आनन्द पहुँचा रही है। जंगी की पुतोहू ने ही कहा था कि बिरजू की माँ 'लाल पान की बेगम' है और आजे स्वयं बिरजू की माँ को यह एहसास होता है कि उसने जो सोचा था उसके पति ने पूरा कर दिया। आज वह सभी को साथ लेकर बलरामपुर का नाच देखने जा रही है। वह वास्तव में 'लाल पान की बेगम है। जंगी की पुतोहू ने ठीक की कहा था इसमें बुरा मानने वाली कौन सी बात है। यह तो प्रशंसा का विषय है कि बिरजू की माँ 'लाल पान की बेगम' है।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ का अन्तर्द्वन्द्व विश्लेषित किया गया है।

2. प्रस्तुत अंश में कहानी के शीर्षक को अर्थ की व्यापकता मिलती है।

गद्यांश 6

बिरजू की माँ ने अपनी नाक पर दोनों आँखों को केन्द्रित करने की चेष्टा करके अपने रूप की झाँकी ली। लाल साड़ी की झिलमिल किनारी वाली माँगटिक्का पर चाँद बिरजू की माँ के मन में अब और कोई लालसा नहीं। उसे नींद आ रही है।

सन्दर्भ: प्रस्तुत गद्यांश परमानन्द श्रीवास्तव द्वारा सम्पादित 'कथान्तर कहानी संकलन के "लाल पान की बेगम' कहानी से उद्धृत किया गया है। इस कहानी के लेखक आंचलिक कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु हैं।

प्रसंग : प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ, बिरजू, चम्पिया, जंगी की पुतोहू नरेना की बीबी, राधे की बेटी सुनरी बैलगाड़ी में सवार होकर बलरामपुर का नाच देखने जा रहे है। बिरजू की माँ अपने सौन्दर्य के दर्शन स्वयं कर आत्मावलोकन करती हुई कहती है।

व्याख्या: प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ अपने बेटे-बेटी और पड़ोस की जंगी की पुतोहू, लरेना की बीबी, राधे की बेटी सुनरी को लेकर अपने पति के साथ बैलगाड़ी में बैठकर बलरामपुर का नाच देखने जा रही है। वह अत्यन्त आनन्दित और प्रफुल्लित है कि उसकी मुराद पूरी हो गयी है। उसके मन में जितने गिले सिकवे थे, वे सभी खत्म हो चुके थे। वह अपनी दोनों आँखों को नाक के पास एकाग्र करके स्वयं के सौंदर्य का दर्शन करना चाहिती है। आज वह अत्यन्त रूपवान और लावण्यमयी दिखाई पड़ रही है। लाल साड़ी में उसका सौन्दर्य और भी अधिक आंकर्षक दिखाई पड़ रहा है। उसकी माँग में सजा टीका, चाँद की तरह प्रतीत हो रहा है। बिरजू की माँ मन-ही-मन सोचती है कि अब उसके मन में कोई लालसा शेष नहीं है। अब शायद वह बलरामपुर का नाच न भी देखे, क्योंकि उसे नींद आने लगी है।

विशेष :

1. प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ के अलौकिक सौंदर्य का अत्यन्त आकर्षक वर्णन किया गया है।

2. स्वयं रूप सौंदर्य के दर्शन की कल्पना आकर्षण और अलौकिक है।

3. प्रस्तुत अंश में बिरजू की माँ के चरित्र को नवीन ऊँचाइया मिली हैं।



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