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संविधान क्या है class 11 short notes

 

संविधान क्या है 


सरकार की शक्तियों पर सीमाएँ (Limitations on the

powers of government)

मान लीजिये कि आपने यह तय कर लिया कि निर्णय कौन करेगा। किंतु, जब उस सत्ता (उनके अनुसार सत्ता का मतलब है निर्णय लेने का अधिकार अपनी मुट्ठी में रखने की क्षमता,) ने कानून बनाए तब आपको लगा कि वे कानून पूर्णतः अनुचित हैं। 

Suppose youd ecided who had the authority to make decisions But then this authority passed laws that you thought were patently (साफ़ तौर पर) unfair. 

उदाहरण के लिए उसने आपको अपने धर्म का पालन करने से रोक दिया या उसने यह निर्णय लिया कि किसी खास किस्म के रंग वाले वस्त्र नहीं पहने जा सकते या आप कुछ विशेष गीत गाने को स्वतंत्र नहीं हैं या किसी विशेष समूह (धर्म, जाति) के लोगों को सदैव दूसरों की सेवा करनी पड़ेगी और उन्हें किसी प्रकार की संपत्ति रखने का अधिकार भी नहीं होगा या सरकार किसी को भी मनमाने तरीके से गिरफ़्तार कर सकती है या किसी एक खास रंग वाले लोगों को ही कुएँ से पानी भरने की इजाजत दी जाएगी। 

स्वाभाविक है कि आपको यह कानून अनुचित और अन्यायपूर्ण लगेंगे। यद्यपि ये सभी कानून उस सरकार द्वारा बनाये गये जो एक विशेष प्रक्रिया का पालन करके बनी थी, लेकिन सरकार द्वारा ऐसे कानूनों को बनाने के पीछे ज़रूर कोई अन्यायपूर्ण बात रही होगी।

अतः संविधान का तीसरा काम यह है कि वह सरकार द्वारा अपने नागरिकों पर लागू किये जाने वाले कानूनों पर कुछ सीमाएँ लगाए। 

So the third function of a constitution is to set some limits on what a government can impose on its citizens. These limits are fundamental in the sense that government may never trespass (हस्तक्षेप) them.

ये सीमाएँ इस रूप में मौलिक (fundamental) होती हैं कि सरकार कभी उसका उल्लंघन नहीं कर सकती।

संविधान सरकार की शक्तियों को कई तरह से सीमित करता है। सरकार की शक्तियों को सीमित करने का सबसे सरल तरीका यह है कि नागरिकों के रूप में हमारे मौलिक अधिकारों को स्पष्ट कर दिया जाए और कोई भी सरकार कभी भी उनका उल्लंघन न कर सके। इन अधिकारों का वास्तविक स्वरूप और व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न संविधानों में बदलती रहती हैं। 

लेकिन अधिकतर संविधानों में कुछ विशेष मौलिक अधिकार सदैव पाये जाते हैं। नागरिकों को मनमाने ढंग से बिना किसी कारण के गिरफ़्तार करने के विरुद्ध सुरक्षा प्राप्त है। यह सरकार की शक्तियों के ऊपर एक मूलभूत सीमा है। नागरिकों को सामान्यतः कुछ मौलिक स्वतंत्रताओं का अधिकार है जैसे भाषण की स्वतंत्रता, अंतरात्मा की आवाज पर काम करने की स्वतंत्रता, संगठन बनाने की स्वतंत्रता आदि। व्यवहार में, इन अधिकारों को राष्ट्रीय आपातकाल में सीमित को किया जा सकता है और संविधान उन परिस्थितियों का उल्लेख भी करता है जिनमें इन अधिकारों को वापिस लिया जा सकता है।

समाज की आकांक्षाएँ और लक्ष्य Aspirations and goals of a society

अधिकतर पुराने संविधानों द्वारा केवल निर्णय लेने की शक्ति का वितरण और सरकार की शक्ति पर प्रतिबंध लगाने का काम किया जाता था। 

Most of the older constitutions limited themselves largely to allocating decision-making power and setting some limits to government power.

लेकिन बीसवीं शताब्दी के अनेक संविधान - जिनमें भारतीय संविधान एक अत्यंत सुंदर उदाहरण है, एक ऐसा सक्षम ढाँचा भी प्रदान करता है जिससे सरकार कुछ सकारात्मक कार्य कर सके और समाज की आकांक्षाओं और उसके लक्ष्य को अभिव्यक्ति दे सके। 

भारतीय संविधान ने इस संबंध में कुछ नये प्रयोग किये। जिन समाजों में नाना प्रकार की असमानताओं की गहरी खाइयाँ हों, वहाँ केवल सरकार की शक्तियों पर प्रतिबंध लगाना ही पर्याप्त नहीं, वरन् वहाँ सरकार को समर्थ और शक्तिशाली भी बनाना पड़ेगा जिससे वह असमानता और गरीबी के विभिन्न रूपों से निपट सकें।

The Indian Constitution was particularly innovative in this respect. Societies with deep entrenched inequalities of various kinds, will not only have to set limits on the power of government, they will also have to enable and empower the government to take positive measures to overcome forms of inequality or deprivation.

उदाहरण के लिए भारत की आकांक्षा है कि हम एक ऐसा समाज बनाएँ जिसमें जातिगत भेदभाव न हों। यदि यह हमारे समाज की आकांक्षा है, तो हमें अपनी सरकार को इतना समर्थ और शक्तिशाली बनाना पड़ेगा कि वह इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए सभी आवश्यक कदम उठा सके। 

दक्षिण अफ्रीका नस्लीय भेदभाव के पुराने इतिहास का उदाहरण है। उसके नये संविधान ने सरकार को इस योग्य बनाया है कि वह नस्लीय भेदभाव को मिटा सके। वास्तव में एक संविधान अपने समाज की आकांक्षाओं का पिटारा है।

 उदाहरण के लिए भारत में संविधान निर्माताओं की इच्छा थी कि समाज के प्रत्येक व्यक्ति को बुनियादी भौतिक जरूरतें और शिक्षा सहित वह सब कुछ मिलना चाहिये जिसके आधार पर वह गरिमा और सामाजिक आत्मसम्मान से भरा हुआ जीवन जी सके। 

भारतीय संविधान सरकार को वह सामर्थ्य प्रदान करता है जिससे वह कुछ सकारात्मक लोक-कल्याणकारी कदम उठा सके और जिन्हें कानून की मदद से लागू भी किया जा सके। जैसे-जैसे हम भारतीय संविधान को पढ़ते हैं, हमें पता चलता है कि ऐसी सामर्थ्य प्रदान करने वाले प्रावधानों को हमारे संविधान की प्रस्तावना का समर्थन प्राप्त है और वे संविधान के मौलिक अधिकारों वाले भाग में पाये जाते हैं।

संविधान का चौथा काम यह है कि वह सरकार को ऐसी क्षमता प्रदान करे जिससे वह जनता की आकांक्षाओं को पूरा कर सके और एक न्यायपूर्ण समाज की स्थापना के लिए उचित परिस्थितियों का निर्माण कर सके।


संविधान के समर्थ बनाने वाले प्रावधान Enabling provisions (नियम) of the Constitution


संविधान सरकार की शक्तियों को नियंत्रित करने वाले नियमों और कानूनों का ही नाम नहीं है। वह सरकार को ऐसी शक्तियाँ भी देता है जिससे वह समाज की सामूहिक भलाई के लिये काम कर सके।


• दक्षिण अफ्रीका का संविधान सरकार को अनेक उत्तरदायित्त्व सौंपता है। वह सरकार को पर्यावरण संरक्षण को बढ़ावा देने और अन्यायपूर्ण भेदभाव से व्यक्तियों और समूहों को बचाने का प्रयास करने के लिये कदम उठाने का अधिकार देता है और यह प्रावधान भी करता है कि सरकार धीरे-धीरे सभी के लिये पर्याप्त आवास और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध कराये।


• इंडोनेशिया में सरकार की जिम्मेदारी है कि वह राष्ट्रीय शिक्षा व्यवस्था बनाए और उसका संचालन करे। इंडोनेशिया का संविधान यह भी सुनिश्चित करता है कि सरकार गरीब और अनाथ बच्चों की देखभाल करेगी।


Fundamental identity of a people

राष्ट्र की बुनियादी पहचान

आखिरी और शायद सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि संविधान किसी समाज की बुनियादी पहचान होता है।

इसका अर्थ यह है कि संविधान के माध्यम से ही किसी समाज की एक सामूहिक इकाई के रूप में पहचान होती है। इस सामूहिक पहचान को बनाने के लिए हमें इस संबंध में कुछ बुनियादी नियमों पर सहमत होना पड़ता है कि हम पर शासन कैसे होगा और शासितों में कौन-कौन से लोग होंगे। संविधान बनने के पहले हमारी अन्य अनेक प्रकार की पहचान या अस्मिताएँ होती हैं। लेकिन कुछ बुनियादी नियमों और सिद्धांतों पर सहमत होकर हम अपनी मूलभूत राजनीतिक पहचान बनाते हैं। 

दूसरा, संवैधानिक नियम हमें एक ऐसा ढाँचा प्रदान करते हैं जिसके अंतर्गत हम अपनी व्यक्तिगत आकांक्षाओं, लक्ष्य और स्वतंत्रताओं का प्रयोग करते हैं। संविधान आधिकारिक बंधन लगा कर यह तय कर देता है कि कोई क्या कर सकता है और क्या नहीं। अतः संविधान हमें एक नैतिक पहचान भी देता है। तीसरा, और अंतिम, अब शायद यह संभव हो सका है कि अनेक बुनियादी राजनीतिक और नैतिक नियम विश्व के सभी प्रकार के संविधानों में स्वीकार किये गये हैं।


अगर हम दुनिया भर के संविधानों को देखें तो हमें सरकारों के अलग-अलग स्वरूप और विविध प्रकार की प्रक्रियाएँ दिखाई देंगी। लेकिन उनमें काफी कुछ साझा भी है। अधिकतर संविधान कुछ मूलभूत अधिकारों की रक्षा करते हैं और ऐसी सरकारें संभव बनाते हैं जो किसी न किसी रूप में लोकतांत्रिक होती हैं। लेकिन राष्ट्रीय पहचान की अवधारणा अलग-अलग संविधानों में अलग-अलग ढंग की होती है। ज्यादातर राष्ट्र विभिन्न जटिल ऐतिहासिक परंपराओं के सम्मिलन से बनते हैं। वे उस राष्ट्र में रहने वाले विभिन्न समूहों को कई तरीकों से आपस में मिला लेते हैं, जैसे जर्मनी का निर्माण 'जर्मन नस्ल' के आधार पर हुआ। संविधान ने इस पहचान को अभिव्यक्ति दी। दूसरी ओर भारतीय संविधान जातीयता या नस्ल को नागरिकता के आधार के रूप में मान्यता नहीं देता। विभिन्न राष्ट्रों में देश की केंद्रीय सरकार और विभिन्न क्षेत्रों के बीच के संबंधों को लेकर भिन्न-भिन्न अवधारणाएँ होती हैं।



THE AUTHORITY OF A CONSTITUTION


अधिकतर देशों में 'संविधान' एक लिखित दस्तावेज़ के रूप में होता है जिसमें राज्य के बारे में कई प्रावधान होते हैं। यह प्रावधान बताते हैं कि राज्य का गठन कैसे होगा और वह किन सिद्धांतों का पालन करेगा। जब हम किसी देश के संविधान की बात करते हैं तो सामान्य रूप से हम उसी दस्तावेज़ का जिक्र कर


In most countries, ‘Constitution’ is a compact document that comprises a number of articles about the state, specifying how the state is to be constituted and what norms it should follow


रहे होते हैं। लेकिन कुछ देशों जैसे इंग्लैंड के पास ऐसा कोई दस्तावेज नहीं है जिसे संविधान कहा जा सके बल्कि उनके पास दस्तावेज़ों और निर्णयों की एक लंबी श्रृंखला है जिसे सामूहिक रूप से संविधान कहा जाता है। अतः हम कह सकते हैं कि संविधान वह दस्तावेज या दस्तावेज़ों का पूँज है जो उन कार्यों को करने का प्रयास करता है जिसका ऊपर उल्लेख किया गया है।


लेकिन विश्व में अनेक संविधान केवल कागज पर ही होते हैं। वे केवल थोथे शब्द होते हैं और कुछ नहीं। महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि कोई संविधान कितना प्रभावी है? उसे कौन-सी बात प्रभावी बनाती है? कौन-सी बात यह सुनिश्चित करती है कि लोगों के जीवन पर वास्तव में उसका प्रभाव पड़ा है? संविधान का प्रभावी होना अनेक कारणों पर निर्भर है।


Mode of promulgation प्रामल्गेशन (घोषणा प्रकाशन)


संविधान को प्रचलन में लाने का तरीका


इसका मतलब है कि कोई संविधान कैसे अस्तित्व में आया। किसने संविधान बनाया और उनके पास इसे बनाने की कितनी शक्ति थी? अनेक देशों में संविधान इसीलिए निष्प्रभावी होते हैं क्योंकि वे सैनिक शासकों या ऐसे अलोकप्रिय नेताओं के द्वारा बनाये जाते हैं जिनके पास लोगों को अपने साथ लेकर चलने की क्षमता नहीं होती। 

विश्व के सर्वाधिक सफल संविधान भारत, दक्षिण अफ्रीका और अमेरिका के हैं। ये ऐसे संविधानों के उदाहरण हैं जिन्हें एक सफल राष्ट्रीय आंदोलन के बाद बनाया गया। यद्यपि भारतीय संविधान को औपचारिक रूप से एक संविधान सभा ने दिसंबर 1946 और नवंबर 1949 के मध्य बनाया पर ऐसा करने में उसने राष्ट्रीय आंदोलन के लंबे इतिहास से काफी प्रेरणा ली। 

राष्ट्रीय आंदोलन में समाज के सभी वर्गों को एक साथ लेकर चलने की विलक्षण क्षमता थी। संविधान को भारी वैधता मिली क्योंकि उसे ऐसे लोगों ने बनाया जिनमें समाज का अटूट विश्वास था और जिनके पास समाज के विभिन्न वर्गों से सीधा संवाद करने और उनका सम्मान प्राप्त करने की क्षमता थी। संविधान निर्माता लोगों को यह समझाने में सफल रहे कि संविधान उनकी व्यक्तिगत शक्तियों को बढ़ाने का कोई साधन नहीं है। यही कारण है कि संविधान को भारी वैधता मिली। संविधान का अंतिम प्रारूप उस समय की व्यापक राष्ट्रीय आम सहमति को व्यक्त करता है।


लोगों को जब यह पता चल है कि उनका संविधान न्यायपू नहीं है तो वे क्या करते ऐसे लोगों का क्या होता जिनका संविधान केवल काग पर ही होता है?


कुछ देशों ने अपने संविधान पर पूर्ण जनमत संग्रह कराया जिसमें सभी लोग अपनाये जा रहे संविधान के पक्ष या विपक्ष में राय देते हैं। भारतीय संविधान पर ऐसा कोई जनमत संग्रह नहीं हुआ। लेकिन इसे लोगों की ओर से प्रबल शक्ति प्राप्त थी क्योंकि यह बहुत ही लोकप्रिय नेताओं की सहमति और समर्थन पर आधारित था और लोगों ने उसके प्रावधानों पर अमल करके उसे अपना लिया। अतः संविधान बनाने वालों का प्रभाव भी एक हद तक संविधान की सफलता की संभावना सुनिश्चित करता है।


संविधान के मौलिक प्रावधान


एक सफल संविधान की यह विशेषता है कि वह प्रत्येक व्यक्ति को संविधान के प्रावधानों का आदर करने का कोई कारण अवश्य देता है। उदाहरण के लिए जिस संविधान में बहुसंख्यकों को समाज के अल्पसंख्यक समूहों का उत्पीड़न करने की अनुमति दी गई हो, वहाँ अल्पसंख्यकों के पास कोई कारण नहीं होगा कि वे संविधान के प्रावधानों का आदर करें। कोई संविधान अन्य लोगों की तुलना में कुछ लोगों को ज़्यादा सुविधाएँ देता है या सुनियोजित ढंग से समाज के छोटे-छोटे समूहों की शक्ति को और मज़बूत करता है तो उसे जनता की निष्ठा मिलनी बंद हो जाएगी। यदि कोई समूह यह महसूस करे कि उसकी 'पहचान' को दबाया जा रहा है तो उसके पास संविधान को मानने का कोई कारण नहीं होगा। कोई भी संविधान खुद से न्याय के आदर्श स्वरूप की स्थापना नहीं करता लेकिन उसे लोगों को विश्वास दिलाना पड़ता है कि वह बुनियादी न्याय को प्राप्त करने के लिए ढाँचा उपलब्ध कराता है।


नेपाल के संविधान निर्माण का विवाद


संविधान बनाना कोई आसान और सुगम काम नहीं है। नेपाल संविधान बनाने की एक जटिल प्रक्रिया का उदाहरण है। 1948 के बाद से नेपाल में पाँच संविधान बनाये जा चुके हैं : 1948, 1951, 1959, 1962 और 1990 में। लेकिन ये सभी संविधान नेपाल-नरेश द्वारा 'प्रदान' किए गए। 1990 में संविधान द्वारा बहु-दलीय लोकतंत्र की शुरुआत की गई पर अनेक क्षेत्रों में नरेश के पास अंतिम शक्तियाँ बनी रहीं। पिछले वर्षों में नेपाल में सरकार और राजनीति की पुनर्संरचना के लिए सशस्त्र राजनीतिक आंदोलन चल रहा था। उसमें प्रमुख मुद्दा यही था कि संविधान में राजा की भूमिका क्या होनी चाहिए। नेपाल के कुछ समूह राजतंत्र नामक संस्था को ही खत्म करने और गणतांत्रिक सरकार की स्थापना के पक्ष में थे। कुछ लोगों का मानना था कि राजा की सीमित भूमिका के साथ संवैधानिक राजतंत्र का बना रहना उपयोगी रहेगा। स्वयं राजा भी शक्तियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। राजा ने अक्तूबर 2002 में समस्त शक्तियों को अपने हाथ में ले लिया।


बहुत सारे राजनीतिक दल और संगठन एक नई संविधान सभा के गठन की मांग कर रहे थे। नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) जनता द्वारा चुनी गई संविधान सभा के संघर्ष में सबसे आगे थी। अंततः जन प्रदर्शन के दबाव के सामने झुकते हुए राजा को एक ऐसी सरकार बनवानी पड़ी जो आंदोलनकारी दलों को स्वीकार्य थी। इस सरकार ने राजा की लगभग सभी शक्तियाँ छीन लीं। 2008 में नेपाल ने राजतंत्र को खत्म किया और लोकतांत्रिक गणराज्य बन गया। अंततः नेपाल ने 2015 में नये संविधान को अपनाया।



आप इस विचार को प्रयोग में लाएँ। स्वयं अपने से यह प्रश्न पूछिये समाज के कुछ बुनियादी नियमों में ऐसी कौन-सी चीजें होनी चाहिए जिनसे सभी लोगों को उन्हें मानने का एक कारण मिल सके?


कोई संविधान अपने सभी नागरिकों की स्वतंत्रता और समानता की जितनी अधिक सुरक्षा करता है उसकी सफलता की संभावना उतनी ही बढ़ जाती है। मोटे तौर पर कहें, तो क्या भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक को एक ना एक ऐसा कारण देता है जिससे वह उसकी सामान्य रूपरेखा का समर्थन कर सके ? इस पुस्तक को पढ़ने के बाद आप इस प्रश्न का 'हाँ' में उत्तर देने की स्थिति में होने चाहिए।


संस्थाओं की संतुलित रूपरेखा  framework The substantive provisions of a constitution


संविधान को जनता नहीं प्रायः एक छोटा समूह ही नष्ट कर देता है क्योंकि वह अपनी शक्तियाँ बढ़ाना चाहता है। ढंग से बनाये संविधान में शक्तियों को इस प्रकार बाँट दिया जाता है जिससे कोई एक समूह संविधान को नष्ट न कर सके। संविधान की रूपरेखा बनाने की एक कारगर विधि यह सुनिश्चित करना है कि किसी एक संस्था का सारी शक्तियों पर एकाधिकार न हो। ऐसा करने के लिए शक्तियों को कई संस्थाओं में बाँट दिया जाता है। उदाहरण के लिए भारतीय संविधान शक्ति को एक समान धरातल पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका जैसी संस्थाओं और स्वतंत्र संवैधानिक निकाय जैसे निर्वाचन आयोग आदि में बाँट देता है। इससे यह सुनिश्चित हो जाता है कि यदि कोई एक संस्था संविधान को नष्ट करना चाहे तो अन्य दूसरी संस्थाएँ उसके अतिक्रमण को नियंत्रित कर लेंगी। अवरोध और संतुलन के कुशल प्रयोग ने भारतीय संविधान की सफलता सुनिश्चित की है।


संस्थाओं की रूपरेखा बनाने में इस बात का भी ध्यान रखा जाता है कि उसमें बाध्यकारी मूल्य, नियम और प्रक्रियाओं के साथ अपनी कार्यप्रणाली में लचीलापन का संतुलन होना चाहिए जिससे वह बदलती आवश्यकताओं और परिस्थितियों के अनुकूल अपने को ढाल सके। ज्यादा कठोर संविधान परिवर्तन के दबाव में नष्ट हो जाते हैं और दूसरी ओर, यदि संविधान अत्यधिक लचीला है तो वह समाज को सुरक्षा और पहचान न दे सकेगा। सफल संविधान प्रमुख मूल्यों की रक्षा करने और नई परिस्थितियों के अनुसार स्वयं को ढालने में एक संतुलन रखते हैं। आप भारतीय संविधान निर्माताओं की समझदारी को नवें अध्याय (संविधान: एक जीवंत दस्तावेज) में महसूस करेंगे जिसमें भारतीय संविधान को एक जीवंत दस्तावेज़ की संज्ञा दी गई है। अपने प्रावधानों में परिवर्तन की संभावना और एक हद तक ठोस रूप में संतुलन बैठा कर संविधान सुनिश्चित करता है कि वह दीर्घायु होगा और जनता का आदर प्राप्त करेगा। इस

Legislature, Executive and the Judiciary

Legislature: Makes laws.  लेजिस्लेटिव 

Executive: Enforces laws and makes policy decisions. 

Judiciary: Interprets laws and ensures they are upheld. 


विधान मंडल: कानून बनाता है.   

कार्यकारिणी: कानूनों को लागू करना और नीतिगत निर्णय लेना।   

न्यायपालिका: कानूनों की व्याख्या करना तथा यह सुनिश्चित करना कि उनका पालन किया जाए। 

  

व्यवस्था से यह भी सुनिश्चित हो जाता है कि कोई भी वर्ग या समूह अपने बल-बूते संविधान को नष्ट नहीं कर सकेगा।

अतः यह पता लगाने के लिए कि क्या किसी संविधान की सत्ता मान्य है, आप अपने से तीन प्रश्न पूछ सकते हैं:


• क्या जिन लोगों ने संविधान बनाया वे विश्वसनीय थे? इस प्रश्न का उत्तर इसी अध्याय में आगे मिलेगा।


• दूसरा क्या संविधान ने सुनिश्चित किया था कि सूझबूझ के साथ शक्ति को इस प्रकार संगठित किया जाए कि किसी एक समूह के लिए संविधान नष्ट करना आसान न हो। और सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण बात यह है कि क्या संविधान सबको कुछ ऐसा कारण देता है कि वे संविधान का पालन करें? इस पुस्तक के अधिकतर हिस्से में इसी प्रश्न का उत्तर दिया गया है।


• क्या संविधान लोगों की आशाओं और आकांक्षाओं का पिटारा है? संविधान द्वारा लोगों की निष्ठा प्राप्त करने की योग्यता काफी कुछ इस बात पर भी निर्भर करती है कि संविधान न्यायपूर्ण है या नहीं। भारतीय संविधान में न्याय के बुनियादी सिद्धांत क्या हैं? इस पुस्तक का अंतिम अध्याय इस प्रश्न का उत्तर देगा।


भारतीय संविधान कैसे बना ?


आइये देखें कि भारतीय संविधान कैसे बना। औपचारिक रूप से एक संविधान सभा ने संविधान को बनाया जिसे अविभाजित भारत में निर्वाचित किया गया था। इसकी पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई और फिर 14 अगस्त, 1947 को विभाजित भारत के संविधान सभा के रूप में इसकी पुनः बैठक हुई। 

संविधान सभा के सदस्य 1935 में स्थापित प्रांतीय विधान

 (प्रांतीय विधान सभा लोगों का एक समूह है जो किसी विशिष्ट प्रांत या राज्य के लिए कानून बनाता और पारित करता है। ") प्रविन्शल 

सभाओं के सदस्यों द्वारा अप्रत्यक्ष विधि से चुने गए। संविधान सभा की रचना लगभग उसी योजना के अनुसार हुई जिसे ब्रिटिश मंत्रिमंडल की एक समिति 'कैबिनेट मिशन' ने प्रस्तावित किया था। इस योजना के अनुसार

• प्रत्येक प्रांत, देशी रियासत या रियासतों के समूह को उनकी जनसंख्या के अनुपात में

सीटें दी गईं। मोटे तौर पर दस लाख की जनसंख्या पर एक सीट का अनुपात रखा गया।

ब्रिटिश भारत में रियासतें (अंग्रेजी:Princely states) ब्रिटिश राज के दौरान अविभाजित भारत में स्वायत्त राज्य थे। इन्हें आम बोलचाल की भाषा में "रियासत", "रजवाड़े" या व्यापक अर्थ में देशी रियासत कहते थे। ये ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा सीधे शासित नहीं थे बल्कि भारतीय शासकों द्वारा शासित थे।

The term "undivided India" or "Akhand Bharat" refers to the concept of a Greater India that is unified, and includes the historical boundaries of India before it was partitioned. It is believed that Afghanistan, Bangladesh, Bhutan, India, Maldives, Myanmar, Nepal, Pakistan, Sri Lanka, and Tibet were all part of one nation.


परिणामस्वरूप ब्रिटिश सरकार के प्रत्यक्ष शासन वाले प्रांतों को 292 सदस्य चुनने थे तथा देशी रियासतों को न्यूनतम 93 सीटें आवंटित की गईं।


• प्रत्येक प्रांत की सीटों को तीन प्रमुख समुदायों जनसंख्या के अनुपात में बाँट दिया गया। मुसलमान, सिख और सामान्य में उनकी


• प्रांतीय विधान सभाओं में प्रत्येक समुदाय के सदस्यों ने अपने प्रतिनिधियों को चुना और इसके लिए उन्होंने समानुपातिक प्रतिनिधित्व और एकल संक्रमण मत पद्धति का प्रयोग किया।


• देशी रियासतों के प्रतिनिधियों के चुनाव का तरीका उनके परामर्श से तय किया गया। अध्याय के पिछले भाग में उन तीनों कारकों पर प्रकाश डाला गया जो संविधान को प्रभावी और सम्मान के योग्य बनाते हैं। भारतीय संविधान इस परीक्षा में कामयाब होता है? किस हद तक


अधिक जानकारी के लिए, देखें


http://164.100.47.194/loksabha/constituent/facts.html


अपने राजनीतिक लोकतंत्र को हमें सामाजिक लोकतंत्र का रूप भी देना चाहिए। राजनीतिक लोकतंत्र तब तक स्थायी नहीं रह सकता है, जब तक कि उसका आधार सामाजिक लोकतंत्र न हो। सामाजिक लोकतंत्र का क्या अर्थ है? इसका अर्थ जीवन के उस मार्ग से है, जो स्वतंत्रता, समता और बंधुता को जीवन के सिद्धांतों के रूप में स्वीकार करता है। स्वतंत्रता, समता और बंधुता के सिद्धांतों को इन तीनों के एक संयुक्त रूप से पृथक-पृथक रूपों में नहीं समझना चाहिए। ये तीनों मिलकर एक ऐसा संयुक्त रूप बनाते हैं कि इनमें से एक को दूसरे से अलग करना लोकतंत्र के मूल प्रयोजन को ही विफल कर देना है। स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं किया जा सकता है, समता को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है। और न ही स्वतंत्रता और समता को बंधुता से अलग किया जा सकता है। समताविहीन स्वतंत्रता कुछ व्यक्तियों की अनेक व्यक्तियों पर प्रभुता को जन्म देगी। स्वतंत्रताविहीन समता व्यक्तिगत पहल को नष्ट कर देगी। बंधुता के बिना स्वतंत्रता और समता अपना स्वाभाविक मार्ग ग्रहण नहीं कर सकते।


डॉ. बी. आर. अंबेडकर


संविधान सभा के वाद-विवाद, खंड XI. पृष्ठ 979. 25 नवंबर 1949 

 

संविधान सभा का स्वरूप rachna Composition of the Constituent Assembly


3 जून 1947 की योजना के अनुसार विभाजन के बाद वे सभी प्रतिनिधि संविधान सभा के सदस्य नहीं रहे जो पाकिस्तान के क्षेत्रों से चुनकर आये थे। संविधान सभा के वास्तविक सदस्यों की संख्या घट कर 299 रह गई। इनमें से 26 नवंबर, 1949 को कुल 284 सदस्य उपस्थित थे। इन्होंने ही अंतिम रूप से पारित संविधान पर अपने हस्ताक्षर किये।

___1947 में ब्रिटिश भारत का विभाजन धार्मिक संबद्धता के आधार पर हुआ, जिसके परिणामस्वरूप मुस्लिम बहुल पाकिस्तान और हिंदू बहुल भारत बना____

इस प्रकार इस उपमहाद्वीप में विभाजन से उपजी विभीषिका (भयावह हिंसा" एक ऐसा वाक्यांश है जो ऐसी हिंसा का वर्णन करता है जो बेहद बुरी या चौंकाने वाली होती है)  और हिंसा के बीच संविधान निर्माण का काम हुआ। लेकिन संविधान निर्माताओं के धैर्य की प्रशंसा करनी पड़ेगी कि उन्होंने न केवल अत्यधिक दबाव में एक संविधान बनाया बल्कि विभाजन के कारण हुई अकल्पनीय हिंसा से सही सबक भी लिया। भारत के संविधान ने नागरिकता की एक नई अवधारणा प्रस्तुत की। इसके अंतर्गत अल्पसंख्यक न केवल सुरक्षित होंगे बल्कि धार्मिक पहचान का नागरिक अधिकारों पर भी कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।


लेकिन संविधान सभा के गठन का यह विवरण केवल सतही तौर पर ही हमें बताता है कि संविधान वास्तव में बना कैसे। यद्यपि हमारी संविधान सभा के सदस्य सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के आधार पर नहीं चुने गये थे पर उसे ज्यादा से ज्यादा प्रतिनिधिपरक बनाने का गंभीर प्रयास किया गया। सभी धर्मों के सदस्यों को ऊपर बतायी गयी विधि से प्रतिनिधित्त्व दिया गया। इसके अतिरिक्त संविधान सभा में अनुसूचित जातियों के अट्ठाईस सदस्य थे। जहाँ तक राजनीतिक दलों का सवाल है विभाजन के बाद संविधान सभा में काँग्रेस का वर्चस्व था और उसे 82 प्रतिशत सीटें प्राप्त थीं। लेकिन काँग्रेस स्वयं विविधताओं से भरी हुई एक ऐसी पार्टी थी जिसमें लगभग सभी विचारधाराओं की नुमाइंदगी थी।


संविधान सभा के कामकाज की शैली The Principle of Deliberation डिलिबरैशन soch samjh kar


संविधान सभा की सत्ता केवल इस बात पर ही नहीं टिकी थी कि वह मोटे तौर पर (हालांकि पूर्ण रूप से नहीं) सबका प्रतिनिधित्व कर रही थी। संविधान बनाने के लिए अपनाई गई प्रक्रिया और सदस्यों के विचार-विमर्श की जड़ में छुपे मूल्यों में ही संविधान सभा की लोकप्रिय सत्ता का आधार था। जहाँ प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली किसी सभा के लिए वांछनीय है कि उसमें समाज के विभिन्न वर्ग सहभागी हों वहीं यह भी महत्त्वपूर्ण है कि वे केवल अपनी पहचान या समुदाय का ही प्रतिनिधित्व न करें। संविधान सभा के सदस्यों ने पूरे देश के हित को ध्यान में रखकर विचार-विमर्श किया। सदस्यों में प्रायः मतभेद हो जाते थे लेकिन सदस्यों द्वारा अपने हितों को आधार बना कर शायद ही कोई मतभेद हुआ हो।


ये मतभेद वास्तव में वैध सैद्धांतिक आधार पर थे। हालाँकि संविधान सभा में अनेक मतभेद थे: भारत में शासन प्रणाली केंद्रीकृत होनी चाहिए या विकेंद्रीकृत ? राज्यों के बीच कैसे संबंध होने चाहिए? न्यायपालिका की क्या शक्तियाँ होनी चाहिए? क्या संविधान को संपत्ति के अधिकारों की रक्षा करनी चाहिए? लगभग उन सभी विषयों पर गहराई से चर्चा हुई जो आधुनिक राज्य की बुनियाद हैं। 

In centralized organizations, strategic planning, goal setting, budgeting, and talent deployment are typically conducted by a single, senior leader or leadership team. In contrast, in decentralized organizations, formal decision-making power is distributed across multiple individuals or teams.

Centralized systems are hierarchical and top-down, while decentralized systems are more democratic and bottom-up. The main difference between the two is where decision-making power is located: 

 

संविधान का केवल एक ही प्रावधान ऐसा है जो लगभग बिना किसी वाद-विवाद के पास हो गया। यह प्रावधान सार्वभौमिक मताधिकार का था जिसका अर्थ है कि धर्म, जाति, शिक्षा, लिंग और आय के आधार पर भेदभाव के बिना सभी नागरिकों को एक निश्चित आयु प्राप्त करने पर वोट देने का अधिकार होगा। सदस्यों ने इस पर वाद-विवाद आवश्यक नहीं माना कि किसे वोट देने का अधिकार होना चाहिए, लेकिन इसके अतिरिक्त प्रत्येक विषय पर गंभीर विचार-विमर्श और वाद-विवाद हुए। ed


इस सभा की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का इससे बढ़िया व्यावहारिक रूप कुछ और नहीं हो सकता था।


संविधान सभा को असली ताकत इस बात से मिल रही थी कि वह सार्वजनिक हित का काम कर रही है। इसके सदस्यों ने चर्चा और तर्कपूर्ण बहसों पर काफी जोर दिया। उन्होंने सिर्फ अपने हितों की बात नहीं की बल्कि अपनी सोच और फ़ैसले के पक्ष में अन्य सदस्यों को सैद्धांतिक कारण दिए। अपनी सोच के पक्ष में दूसरों से तर्कपूर्ण संवाद स्वार्थ या संकीर्णता से ऊपर उठा देता है। संविधान सभा में हुई चर्चा कई मोटे-मोटे खंडों में प्रकाशित हुई है और हर अनुच्छेद को लेकर जैसी विस्तृत और बारीकी से बातचीत हुई है वह सार्वजनिक विवेक की भावना को सबसे प्रामाणिक ढंग से सामने लाती है। ये बहसें भी फ्रांसीसी और अमेरिकी क्रांति की तरह संविधान निर्माण के इतिहास के सबसे महत्त्वपूर्ण और यादगार अध्यायों में से हैं।


कार्यविधि Procedures


संविधान सभा की सामान्य कार्यविधि में भी सार्वजनिक विवेक का महत्त्व स्पष्ट दिखाई देता था। विभिन्न मुद्दों के लिए संविधान सभा की आठ मुख्य कमेटियाँ थीं। आम तौर पर जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, सरदार पटेल या बी. आर. अंबेडकर इन कमेटियों की अध्यक्षता (मार्गदर्शन, निर्देश या नियंत्रण का प्रयोग करना ।)करते थे। 

ये ऐसे लोग थे जिनके विचार हर बात पर एक-दूसरे के समान नहीं थे। अंबेडकर तो कांग्रेस और गांधी के कड़े आलोचक थे (वह व्यक्ति जो किसी मामले पर तर्कपूर्ण राय व्यक्त करता है, विशेषकर उसके मूल्य, सत्य, धार्मिकता, सौंदर्य या तकनीक के बारे में निर्णय लेने से संबंधित।)

और उन पर अनुसूचित जातियों के उत्थान के लिए पर्याप्त काम न करने का आरोप लगाते थे। 

पटेल और नेहरू बहुत-से मुद्दों पर एक-दूसरे से असहमत थे। फिर भी सबने एक साथ मिलकर काम किया। प्रत्येक कमेटी ने आम तौर पर संविधान के कुछ-कुछ प्रावधानों का प्रारूप तैयार किया जिन पर बाद में पूरी संविधान सभा में चर्चा की गई। आम तौर पर यह प्रयास किया गया कि फ़ैसले आम राय से हों और कोई भी प्रावधान किसी खास हित समूह के पक्ष में न हो।

 कई प्रावधानों पर निर्णय मत विभाजन करके भी लिए गए। ऐसे अवसरों पर भी हर सरोकार का ध्यान रखा गया और हर तर्क और शंका का समाधान बहुत ही सावधानी से किया गया। लिखित रूप में उनका जवाब दिया गया। दो वर्ष और ग्यारह महीने की अवधि में संविधान सभा की बैठकें 166 दिनों तक चलीं। इसके सत्र अखबारों और आम लोगों के लिए खुले हुए थे।


राष्ट्रीय आंदोलन की विरासत Inheritance of the nationalist movement


लेकिन कोई भी संविधान केवल अपनी संविधान सभा के बूते नहीं बनता। भारत की संविधान सभा इतनी विविधतापूर्ण थी कि वह सामान्य ढंग से काम ही नहीं कर सकती थी यदि उसके पीछे उन सिद्धांतों पर आम सहमति न होती जिन्हें संविधान में रखा जाना था। इन सिद्धांतों पर स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान सहमति बनी। एक तरह से संविधान सभा केवल उन सिद्धांतों को मूर्त रूप और आकार दे रही थी जो उसने राष्ट्रीय आंदोलन से विरासत में प्राप्त किए थे। संविधान लागू होने के कई दशक पूर्व से ही राष्ट्रीय आंदोलन में उन प्रश्नों पर चर्चा हुई थी जो संविधान बनाने के लिए प्रासंगिक थे, जैसे भारत में सरकार का स्वरूप और संरचना कैसी होनी चाहिए, हमें किन मूल्यों का समर्थन करना चाहिए, किन असमानताओं को दूर किया जाना चाहिए आदि? उन बहसों से प्राप्त निष्कर्षों को ही संविधान में अंतिम रूप प्रदान किया गया।


राष्ट्रीय आंदोलन से जिन सिद्धांतों को संविधान सभा में लाया गया उसका सर्वोत्तम सारांश हमें नेहरू द्वारा 1946 में प्रस्तुत 'उद्देश्य प्रस्ताव' में मिलता है। इस प्रस्ताव में संविधान सभा के उद्देश्यों को परिभाषित किया गया था। इस प्रस्ताव में संविधान की सभी आकांक्षाओं और मूल्यों को समाहित किया गया था। पिछले भाग में जिसे संविधान के मौलिक प्रावधान कहा गया था वह वास्तव में उद्देश्य-प्रस्ताव में समाहित मूल्यों से प्रेरित और उनका सारांश है। इसी प्रस्ताव के आधार पर हमारे संविधान में समानता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र, संप्रभुता और एक सर्वजनीन पहचान जैसी बुनियादी प्रतिबद्धताओं को संस्थागत स्वरूप दिया गया। अतः हमारा संविधान केवल नियमों और प्रक्रियाओं की भूलभुलैया नहीं है, बल्कि यह एक ऐसी सरकार बनाने की नैतिक प्रतिबद्धता है जो राष्ट्रीय आंदोलन में लोगों को दिये गये आश्वासनों को पूरा करेगी।


संस्थागत व्यवस्थाएँ Institutional arrangements


संविधान को प्रभावी बनाने का तीसरा कारक यह है कि सरकार की सभी संस्थाओं को संतुलित ढंग से व्यवस्थित किया जाए। मूल सिद्धांत यह रखा गया कि सरकार लोकतांत्रिक रहे और जन-कल्याण के लिए प्रतिबद्ध हो। संविधान सभा ने शासन के विभिन्न अंगों विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के बीच समुचित संतुलन स्थापित करने के लिए बहुत विचार-मंथन किया।


 संविधान सभा ने संसदीय शासन व्यवस्था और संघात्मक उद्देश्य-प्रस्ताव के प्रमुख बिंदु


भारत एक स्वतंत्र, संप्रभु (वह व्यक्ति जिसके पास सर्वोच्च शक्ति या अधिकार हो।)  गणराज्य है; (republic is a form of government where the people hold power, but elect representatives to exercise that power)


भारत ब्रिटेन के अधिकार में आने वाले भारतीय क्षेत्रों, देशी रियासतों और देशी रियासतों के बाहर के ऐसे क्षेत्र जो हमारे संघ का अंग बनना चाहते हैं, का एक संघ होगा।


संघ की इकाइयाँ स्वायत्त होंगी और उन सभी शक्तियों का प्रयोग और कार्यों का संपादन करेंगी जो संघीय सरकार को नहीं दी गई।


संप्रभु और स्वतंत्र भारत तथा इसके संविधान की समस्त शक्तियों और सत्ता का स्रोत जनता है।


भारत के सभी लोगों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्यायः कानून के समक्ष समानता; प्रतिष्ठा और अवसर की समानता तथा कानून और सार्वजनिक नैतिकता की सीमाओं में रहते हुए भाषण, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म, उपासना, व्यवसाय, संगठन और कार्य करने की मौलिक स्वतंत्रता की गारंटी और सुरक्षा दी जायेगी।


अल्पसंख्यकों, पिछड़े व जनजातीय क्षेत्र, दलित व अन्य पिछड़े वर्गों को समुचित सुरक्षा दी जायेगी।


गणराज्य की क्षेत्रीय अखंडता तथा थल, जल और आकाश में इसके संप्रभु अधिकारों की रक्षा सभ्य राष्ट्रों के कानून और न्याय के अनुसार की जायेगी। विश्वशांति और मानव कल्याण के विकास के लिए देश स्वेच्छापूर्वक और पूर्ण योगदान करेगा। 


व्यवस्था को स्वीकार किया जो एक ओर विधायिका और कार्यपालिका के बीच तथा दूसरी ओर केंद्रीय सरकार और राज्यों के बीच शक्तियों का वितरण करती है।


शासकीय संस्थाओं की सर्वाधिक संतुलित व्यवस्था स्थापित करने में हमारे संविधान निर्माताओं ने दूसरे देशों के प्रयोगों और अनुभवों से कुछ सीखने में कोई संकोच नहीं किया। इसी प्रकार हमारे संविधान निर्माताओं ने अन्य संवैधानिक परंपराओं से कुछ ग्रहण करने से भी कोई परहेज नहीं किया। यह उनके व्यापक ज्ञान का प्रमाण है कि उन्होंने किसी भी ऐसे बौद्धिक तर्क या ऐतिहासिक उदाहरण की अनदेखी नहीं की जो उनके कार्य को संपन्न करने के लिए जरूरी था। अतः उन्होंने विभिन्न देशों से अनेक प्रावधानों को भी लिया।


लेकिन उन विचारों को लेना कोई नकलची मानसिकता का परिणाम नहीं था बल्कि बात इससे बिलकुल अलग थी। संविधान के प्रत्येक प्रावधान को इस आधार पर उचित सिद्ध करना था कि वह भारत की समस्याओं और आशाओं के अनुरूप है। यह भारत का सौभाग्य ही था कि हमारी संविधान सभा ने संकुचित दृष्टिकोण छोड़कर संपूर्ण विश्व से सर्वोत्तम चीजों को ग्रहण किया और उन्हें अपना बना लिया।


ब्रिटिश संविधान


• सर्वाधिक मत के आधार पर चुनाव में जीत का फैसला


• सरकार का संसदीय स्वरूप


• कानून के शासन का विचार


• विधायिका में अध्यक्ष का पद और उनकी भूमिका


• कानून निर्माण की विधि


आयरलैंड का संविधान


• राज्य के नीति निर्देशक तत्व


फ्रांस का संविधान


• स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्त्व का सिद्धांत


अमेरिका का संविधान


• मौलिक अधिकारों की सूची


• न्यायिक पुनरावलोकन की शक्ति और न्यायपालिका की स्वतंत्रता



कनाडा का संविधान


• एक अर्द्ध-संघात्मक सरकार का स्वरूप (सशक्त केंद्रीय सरकार वाली संघात्मक व्यवस्था)


• अवशिष्ट शक्तियों का सिद्धांत






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