भास की नाट्य - शैली
भास की नाट्य - शैली
भास के नाटकों में कल्पना और मौलिकता के कारण कवित्व का प्राचुर्य दिखायी देता है । शैली की विशेषता के कारण इनके संवादों में प्रभावात्मकता आ गयी है । भास की भाषा शैली की निम्नलिखित विशेषताएँ हैं »
प्रभावपूर्ण भाषा -
भास के नाटकों में भाषा प्रयोग की चतुरता दिखायी देती है । भास ने मुहावरेदार भाषा को प्रभावोत्पादकता के साथ प्रस्तुत किया है । नाटक के लिए भाषा की सरलता , सहजता , स्फुटता , गम्भीरता , मधुरता एवं मनोरंजकता का पुट होना आवश्यक है , जो विशेषता भास के नाटकों में देखी जा सकती है । ओज , प्रसाद एवं माधुर्य तीनों गुणों के सम्मिश्रण से भास की कृतियों में अनुकरणीय रोचकता आ गयी है । >
सरल नाटकोचित भाषा-
भास ने अपने नाटकों में अलंकारों के प्रयोग को महत्त्व न देते हुए सरल भाषा के प्रयोग को प्रमुखता दी है । प्रवाह से परिपूर्ण भास की भाषा अभिव्यक्ति में पूर्ण समर्थ है इनके संवादों में शैली की स्पष्टता दिखाई देती है । पात्रों के कथोपकथनों में अत्यन्त विदग्धता दिखायी देती है । भास के नाटकों में उक्ति प्रत्युक्तियों का संतुलित , स्वाभाविक एवं रोचक वर्णन हुआ है । -
छन्दों का सफल प्रयोग -
छन्दों के प्रयोग में भी भास अप्रतिम हैं । कई स्थानों पर उक्ति प्रत्युक्ति के माध्यम से छन्दों के दो भाग दिखायी देते हैं । जहाँ पूर्वार्द्ध का प्रयोग एक पात्र करता है तो उत्तरार्द्ध का प्रयोग दूसरा पात्र । यथा- भरत एवं उनके सारथि का यह संवाद -
भरत - पितुर्मे को व्याधिः ?
सूतः हृदयपरितापः खलु महान् ।
भरत: किमाहुस्तं वैद्याः ?
सूतः - न खलु भिषजस्तत्र निपुणाः ।
> पात्रानुकूल भाषा -
भास के नाटकों में पात्रों की सर्वाधिक विशेषता यह है कि प्रत्येक पात्र अपने स्तरानुकूल भाषा का प्रयोग करता है । प्रसाद गुण के प्रयोग से दर्शक और पात्र एक साथ बँध जाते हैं । रूपकों को गतिशील बनाए रखने के लिए प्रसाद गुण आवश्यक है जिसके प्रयोग में भास सफल हुए हैं ।
> बोलचाल की भाषा -
भास के रूपकों से पता चलता है कि उन्होंने तत्कालीन आम बोलचाल की भाषा का प्रयोग किया है , इसी कारण उनकी कृतियों में अनेक अपाणिनीय प्रयोग भी दिखायी देते हैं । आत्मनेपद के स्थान पर परस्मैपद का अथवा इसके विपरीत प्रयोग भी भास ने किया है । अकर्मक क्रियाओं का सकर्मक प्रयोग भी दिखायी देता है । समास की प्रक्रिया में भी पाणिनि से भिन्न प्रयोग देखे जा सकते हैं । इससे द्योतित होता है कि भास ने बोलचाल की भाषा को अधिक प्रयुक्त किया है ।
> शैली में तीनों गुणों का समावेश -
शास्त्रीय दृष्टि से भास की शैली में ओज , प्रसाद एवं माधुर्य इन तीनों गुणों का समावेश देखा जा सकता है । कोमल भावनाओं की अभिव्यक्ति के लिए भास मनोरम शैली का प्रयोग करते हैं । बलपूर्वक अलंकारों का प्रयोग न करते हुए भास ने सहज भाषा - शैली को प्राथमिकता दी ।
> सशक्त शैली का प्रयोग -
भास की नाट्यकला अनोखी है । शैली को सशक्त बनाने के लिए भास ने आम् , बाढम् , यदि , चेत् तथा कुशल प्रश्न के लिए ' सुखमार्यस्य ' का प्रयोग किया है । इससे पता चलता है कि नाटककार दृश्यों के चित्रण में अत्यन्त निपुण है । शैली की संक्षिप्तता के कारण छोटे - छोटे वाक्यों में गम्भीर तथा रसयुक्त भावों की व्यञ्जना प्रस्तुत की गई है ।
> नाटकत्व व काव्यत्व का सन्तुलन -
भास की नाट्यशैली में सरल शब्द , स्वाभाविक पदविन्यास और भाव सौष्ठव पाया जाता है । रूपक , उपमा एवं उत्प्रेक्षा जैसे सरल तथा स्वाभाविक अलंकारों का प्रयोग किया है । प्रकृति के नैसर्गिक चित्रण को भास ने अपनी मौलिकता से सजीवता प्रदान की है । भास का काव्यत्व नाटकत्व का पूरक है । इनके पात्रों के संवाद संक्षिप्त , उचित एवं अवसरानुकूल हैं । कम शब्दों में अधिक वर्णन अर्थात् गागर में सागर की उक्ति को चरितार्थ करती हुई भास की रचनाएँ देखी जा सकती हैं । इनका कथन क्षण भर में गुह्यतम गुत्थियों का समाधान , मानसिक भावनाओं की सुख में परिणति तथा विचारों को संक्षिप्त रूप में रखते हुए भाव को स्पष्ट करने वाला है ।
संक्षेप में भास की नाट्य - शैली की विशेषताओं को इस प्रकार समझा जा सकता है:-
- स्वच्छता एवं संक्षिप्तता ।
- कथोपकथन का उचित निदर्शना ।
- प्रभावोत्पादकता व व्यञ्जकता का मणिकाञ्चन योग।
- अल्पसमास या समासहीन वाक्य संघटना ।
- सरलता और सहज बोधगम्यता ।
- यथार्थता ।
- लोकोक्तियों एवं सूक्तियों का प्रयोग ।
- हास्य एवं व्यंग्य की प्रभावोत्पादकता ।
- सजीवता तथा शक्तिमता ।
- स्वल्प शब्दों द्वारा अधिक भाव - व्यञ्जना ।
- पात्रों के चरित्र चित्रण में व्यक्ति - वैचित्र्य तथा उनमें नाटकीय गुण सम्पन्नता ।
- घटनाओं की प्रभावोत्पादकता एवं आकस्मिक वितरण ।